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________________ सूयगड १ १४. अदु गाइणं व सुहिणं वा अप्पियं दठ्ठे एगया होइ । गिद्धा सत्ता कामेह रक्खणपोसणे मणस्सोऽसि ॥१४२ १५. समणं पि दट्टूदासीगं तत्य विताय एगे कुष्पंति । अदु भोयणेहि इत्थदोससंकिणो ह होति ॥ १५ ॥ १६. कुब्वंति संथवं ताहि पढभट्ठा समा हिजोगेहि । तम्हा समणा ण समेंति आयहियाए सष्णिसेन्जाओ |१६| १७. बहवे गिहाई अवहट्ट मिस्सीमा पत्या एगे। पवयंति कुसीला ॥१७॥ धुवमग्गमेव बायावीरियं रव परिसाए अह रहस्सम्मि दुक्कडं कुणइ । जाणंति य णं णं तथावेदा माइले महाराज्यं ति | १८| १५. सु १६. सयं दुक्क दुक्कडं ण वयइ आइट्ठो वि पकत्वह बाले । durgats मा कासी चोइज्जतो गिलाइ से भुज्जो ॥१६॥ वि इत्थिपोसेसु इथिवेण्णा । पुरिसा पण्णासमणिया बेगे नारीणं वसं उदकसंति |२०| २०. उनिया Jain Education International १८७ अथवा ज्ञातीनां वा सुहृदां वा अप्रियं दृष्टवा एकदा भवति । गृद्धाः सक्ताः रक्षणपोषणे कामेषु, मनुष्योऽसि ॥ श्रमणं अपि दृष्ट्वा उदासीन, तत्रापि तावत् एके कुप्यन्ति । अथ भोजनेषु यस्तेषु स्त्रीदोषशंकितः भवन्ति ॥ कुर्वन्ति संस्तवं ताभि, समाधियोगेभ्यः । प्रभ्रष्टाः तस्मात् श्रमणाः न समायन्ति आत्महिताय सग्निषयाः ॥ बहूनि गृहाणि अपहृत्य, मिश्रीभावं प्रस्तुता एके प्रवमार्गमेव वाग्वीर्यं शुद्धं रवति पर्षद, अथ रहस्ये दुष्कृतं करोति । जानन्ति च तं तथावेदा मायावी महाशठोऽयं इति ॥ प्रवदन्ति कुशीलानाम् ॥ स्वयं दुष्कृतं न वदति, आदिष्टोऽपि प्रकत्थते बालः । वेदानुवीचि मा कार्षीः, बोद्यमानो ग्लायति स भूयः ॥ उषिता अपि पुरुषा: प्रज्ञासमन्विता नारीणां वशं ०४ : स्त्रीपरिक्षा श्लो० १४-२० १४. किसी समय स्त्री के साथ परिचय करते हुए भिक्षु को देखकर उसके ज्ञातियों" और मित्रों में अप्रियभाव उत्पन्न होता है। (वे सोचते हैं) ये भिक्षु कामभोगों में गूड हैं, हैं । ( फिर उस भिक्षु से कहते हैं -) 'तुम ही इसके पुरुष (स्वामी) हो । इसका रक्षण और पोषण तुम ही करो। " ४३ स्त्रीपोष स्त्रीवेदक्षेत्राः । वा एके, उपकषन्ति । For Private & Personal Use Only १५. श्रमण को स्त्रियों के समीप बैठा हुआ" देखकर भी कुछ लोग कुपित हो जाते हैं । श्रमण को देने के लिए रखे हुए भोजन को देखकर स्त्री के प्रति दोष की शंका करने लग जाते हैं । " १६. समाधि योग से" भ्रष्ट श्रमण स्त्रियों के साथ परिचय करते हैं इसलिए आत्महित की दृष्टि से भ्रमण गृहस्थ की शय्या पर नहीं बैठते । २४९ १७. कुछेक लोग अपने-अपने घरों को छोड़ कर गृहस्थ और साधु - दोनों का जीवन जीते हैं। वे इसी को घुमा बतलाते हैं । कुशील लोग केवल वावीर होते हैं" (कर्मवीर नहीं ।) १८. कुशील मनुष्य परिषद् में अपने आपको शुद्ध" बतलाता है और एकान्त में पाप करता है । यथार्थ को जानने वाले" जान लेते है यह मायावी है, महाशठ है । * ५१ १६. ह स्वयं अपना दुष्कृत नहीं बत लाता । कोई उसे ( प्रमाद न करने के लिए) प्रेरित करता है" तब वह अपनी प्रशंसा करने लग जाता है ।" *मैथुन की कामना मत करो - यह कहने पर वह बहुत खिन्न होता है । २०. कुछ पुरुष स्त्री का सहवास कर चुके हैं, स्त्रियों के हावभाव " जानने में निपुण है, प्रज्ञा से समन्वित हैं, फिर भी वे स्त्रियों के वशीभूत हो जाते है ।" www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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