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सूपगटो १
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७. मणबंधणेहि कवणीयमुदािणं अदु मंजुलाई प्रासंति आणवयंति भिकाहि 101
मसीहं जहा व कुणि नेणं
पासेणं ।
बंधति
णिन्नयमेवचरं एवित्थियाओ संबुडमेगतियमणगारं
९. अह तत्थ पुणो णमयंति रहकारो व णेम अणुपुथ्वीए । बड़े मिए व पासेणं फंदते विमुच्चई ताहे ||
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१०. अह सेऽगुतप्पई पच्छा भोच्चा पायसं व विस मिस्सं । एवं विवागमायाए संवासो ण कप्पई दविए |१०|
११. तम्हा उ वञ्जए इत्बी
विसलित्तं व कंटगं णच्चा । ओए कुलाणि वसवत्ती आधार ण से वि गिं |११|
१२. जे एवं उंछं तमिद्धा अण्णयरा हु ते कुसीलाणं । सुतवस्सिए वि से भिक्खू णो बिहरे सहणमित्थी |१२| १३. अवि धूराहिं सुहाहि चाईहि अदुवा दासीहि । महतीह वा कुमारीह संथ से ण कुज्जा अणगारे ।१३।
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मनोबन्धनैः करण विनीतं
अथवा आज्ञापयन्ति
अनेक
उपकृष्य ।
भाषस्ते, भित्रकथाभिः ॥
मंजुलानि
सिंहं यथा वा निर्भयं एमचरं
एवं
स्त्रियः
संवृतं एककं
कुणपेन, पाशेन ।
बध्नन्ति,
अनगारम् ॥
अथ तत्र पुनः नमयन्ति, रथकारः इव नेमि अनुपूर्व्या । बढ़ो मुग इव पाशेन, स्पन्दमानोऽपि न मुच्यते तदा ॥
अथ स अनुतपति पश्चात्, भुक्त्वा पायसं इव विषमिश्रम् । एवं विपार्क आदाय, संवास: न कल्पते द्रव्यस्य ॥
तस्मात् तु वर्जयेत् स्त्रियं विषलिप्तं इव कण्टकं ज्ञात्वा । ओजः कुलानि वशवर्ती, आख्याति न सोऽपि निर्ग्रन्यः ॥
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ये एतद् उञ्छ तदनुगृद्धाः, अन्यतराः खलु ते कुशीलानाम् । सुतपस्विकोऽपि सः भिक्षु नो विहरेत् सह स्त्रीभिः ॥ अपि दुहितुभिः स्नुषाभिः धात्रीभि: अथवा दासीभिः । महतीभि: वा कुमारीभिः, संस्तर्ण स न कुर्यात् अनगारः ॥
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० ४ स्त्रीपरिज्ञा : इलो० ७-१३
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७. वे मन को बांधने वाले अनेक ( शब्दों के द्वारा) दीन भाव प्रदर्शित करती हुई विनयपूर्वक भिक्षु के समीप आकर मीठी बोलती हैं और संयम से विमुख करने वाली कवा के द्वारा उसे वशवर्ती बना आज्ञापित करती
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हैं । १५
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८. जैसे (सिंह को पकड़ने वाले लोग ) निर्भय और अकेले रहने वाले सिंह को मांस का प्रलोभन दे पिंजड़े में बांध देते
वैसे ही स्त्रियां संत और अकेले भिक्षु को (शद आदि विषयों का प्रलोभन देकर ) बांध लेती हैं ।
९. फिर वे उस भिक्षु को वैसे ही झुका देती हैं जैसे बढई क्रमशः चक्के की पुट्ठी को । उस समय वह पाश से बंधे हुए मृग की भांति स्पंदित होता हुआ भी बंधन से छूट नहीं पाता । १०. वह (स्त्री के बंधन में फंसा हुआ भिक्षु) पीछे वैसे ही अनुताप करता है जैसे विषमिश्रित खीर को खाकर मनुष्य पछताता है । इस प्रकार अपने आचरण का विपाक जानकर रागद्वेष रहित भिक्षु" स्त्री के साथ संवास न करे।"
११. भिक्षु स्त्री को किसान जान कर उसका वर्जन करे। रागद्वेष रहित" और जितेन्द्रिय भिक्षु" भी घरों में जाकर केवल स्त्रियों में धर्मकथा करता है वह भी निर्ग्रन्थ नहीं होता (तब फिर दूसरे सामान्य भिक्षु का कहना ही क्या ! ) ।"
१२. जो भक्त होकर विषयों की खोज करते हैं" वे कुशील व्यक्तियों की" श्रेणी में आते हैं। सुतपस्वी भिक्षु भी स्त्रियों के साथ न रहे। १३. भिक्षु बेटी, बहू, दाई अथवा दासियों, फिर वे बड़ी हो या कुमारी के साथ" भी परिचय न करे । "
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