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________________ सूयगडो १ ४८२ प्रध्ययन ११ : टिप्पण ५२-५३ अन्य तीर्थंकरों ने भी इसका प्रतिपादन किया था ?' शास्त्रकार इसका समाधान प्रस्तुत करते हैं कि जो अतीत काल में अनन्त तीर्थकर हो चुके हैं, जो भविष्य काल में अनन्त तीर्थकर होंगे और जो वर्तमान में संख्येय तीर्थंकर हैं-उन सबने इसी निर्वाण-मार्ग का प्रतिपादन किया था, करेंगे और कर रहे हैं। केवल प्रतिपादन ही नहीं, सबने इस मार्ग का अनुसरण किया था, करते हैं और करेंगे। चूर्णिकार ने 'बुद्ध' का अर्थ तीर्थकर या आचार्य किया है। चूर्णिकार ने शांति के दो अर्थ किए हैं—चारित्रमार्ग, निर्वाण ।' वृत्तिकार ने भी दो अर्थ किए हैं-भावमार्ग, मोक्ष ।' ५२. पृथ्वी (जगई) इसके दो अर्थ हैं१. स्थावर और जंगम जीवों का आधार पृथ्वी ।' २. तीन लोक ।' श्लोक ३७: ५३. उनसे हत-प्रहत न हो (ण तेहिं विणिहण्णेज्जा) ____ संयम-मार्ग में अनेक कष्ट आते हैं। मुनि उनसे त-प्रहत होने पर भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र मार्ग से च्युत न हो। क्रमश: उन परीषहों को जीतता हुआ मुनि संयमवीर्य को वृद्धिंगत करे जिससे कि वे बड़े कष्ट भी छोटे हो जाएं, महान् उपसर्ग भी तूच्छ हो जाएं।' ___एक अहीरन युवती थी। उसकी गाय ने बछड़ा दिया। उसी दिन से वह युवति उस बछड़े को उठाकर गाय के पास ले जाती और जब स्तनपान कर लेता तब उसे वापस ला खूटे से बांध देती। यह क्रम प्रतिदिन चलता रहा । बछड़ा बढ़ता गया। यूवति में उठाने की शक्ति भी बढती गई। यह क्रम चार वर्ष तक चला। बछड़ा चार वर्ष का बैल हो गया। परन्तु युवति उसको सहजतया उठाकर चल देती, क्योंकि उसका वह प्रति दिन का अभ्यास बन गया था। इसी प्रकार मुनि भी क्रमशः परीषहों पर विजय पाता हुआ सन्मार्ग से कभी च्युत नहीं होता। जीतने के अभ्यास से उसकी शक्ति क्रमशः वृद्धिंगत होती रहती है। एक दिन ऐसा आता है कि बड़े से बड़े कष्ट को भी हंसते हुए झेलने में वह सफल हो । जाता है। १. (क) चूणि, पृ० २०४ : किमेवं वर्द्धमानस्वामी एतन्मार्गमुपदिष्टवान उतान्येऽपि तीर्थकरा: ? (ख) वृत्ति, पत्र २०६ : अथैवंभूतं भावमागं कि वर्धमानस्वाम्येवोपदिष्टवान् उताम्येपि । २. चूणि, पृ० २०४ : ते आचार्या वा। ३. चणि, पृ० २०४ : शान्तिश्चारित्रमार्ग इत्यर्थः ........."निर्वाणं वा शान्तिः । ४. वृत्ति, पत्र २०६, २१०: शान्ति:-भावमार्गः........."यवि वा शान्तिः-मोक्षः । ५. चूणि, पृ० २०४ । जगती नाम पृथिवी। ६. वृत्ति, पत्र २१० । जगती-त्रिलोकी। ७. चूणि, पृ० २०४ : ण तेहि उदिण्णेहि वि णाण-बंसण-चरित्तसंजुत्ताओ मग्गाओ विणिहण्णेज्जा, (आणु)पुवीए जिणंतो संयमवीरियं उप्पादेज्जासि त्ति, जधा ते गुरुगा वि उदिण्णा लहुगा भवंति । ८. (क) चूणि, पृ० २०४ : दृष्टान्तः आभीरयुवति:-जातमत्तं वच्छगं दुणि वेलाए उक्खिविऊण णिक्खामेति, पीतं चैनं पुनः प्रवेश यति । तमेवं क्रमशो वर्द्धमानं अहरहर्जेयं कुर्वती जाव चउहायणं पि उक्खिवेति । एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनयः-एवं साधुरपि सन्मार्गात क्रमशो जयाद् उदीर्णरपि परीष हैन विहन्येत ।। (ख) वृत्ति, पत्र २१० : परीषहोपसगंजयश्चाभ्यासक्रमेण विधेयः अभ्यासवशेन हि दुष्करमपि सुकरं भवति, अत्र च दृष्टांतः, तद्यथा-कश्चिद्गोपस्तबहतिं तर्णकमुक्षिप्य गवान्तिकं नयत्यानयति च, ततोऽसावनेनैव च क्रमेण प्रत्यहं प्रवर्द्धमानमपि वत्समुरिक्षपन्नभ्यासवशाविहायनं त्रिहायणमप्युत्क्षिपति, एवं साधुरभ्यासात् शनैः-शनैः परिषहोपसर्गजयं विधत्त इति । Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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