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सूयगड १
४७. ( सव्यमेयं णिकिच्चा
सूत्रकार का अभिमत है की विद्यमानता में संयम का सम्यक्
मुणी)
कि जब तक कषाय या अन्यदोष विद्यमान हैं तब तक निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती । कषाय पालन नहीं हो सकता। कहा है
४८ १
श्लोक ३४ :
सामण्णमणुचरंतरस, कसाया जस्स उक्कडा होंति । मण्णामि उच्छुपुष्कं व निष्फलं तस्स सामण्णं ॥
श्रामण्य का पालन करने वाले जिस पुरुष के कषाय प्रबल होते है, उसका श्रामण्य ईक्षु के फूल की भांति निरर्थक है,
निष्फल है । '
४८. तप में पराक्रम करने वाला (उधाणवीरिए)
इलोक ३५ :
उपधान का अर्थ है - तप तप में वीर्य - पराक्रम करने वाला 'उपधानवीर्य' कहलाता है ।"
४६. साधु-धर्म का संधान करे (संघ साधम्मं )
'साधु-धर्म के दो अर्थ है
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१. क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, लाघव आदि दश प्रकार का श्रमण धर्म ।
२. सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र ।
अज्ञान, अविरति मिथ्यात्व आदि पापधर्म है।
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'संघए' का अर्थ है - इन गुणों की वृद्धि करे ।
ज्ञान के विषय में ए ज्ञान को प्राप्त कर और अधीत ज्ञान का स्मरण कर ज्ञान की वृद्धि करे, दर्शन के विषय मेंनिःशंकित आदि गुणों को दृढ कर दर्शन की वृद्धि करे तथा चारित्र के विषय में से चारित्र की वृद्धि करे ।
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मूल गुणों का अखंड पालन कर नए-नए अभिग्रहो
५०. पापधर्म का (पावधम्मं )
अध्ययन ११ : टिप्पण ४७-५१
श्लोक ३६ :
५१. श्लोक ३६ :
इस श्लोक के संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या इस निर्वाण मार्ग के प्रतिपादक केवल भगवान् महावीर ही थे या
१. वृत्ति पत्र २०६ ।
२ (क) चूर्ण, पृ० २०३ : उपधानवीयं नाम तपोवीर्यम् ।
(ख) वृत्ति, पत्र २०६ : तथोपधानं तपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्यं यस्य स भवत्युपधानवीर्यः ।
३. (क) भूमि, पृ० २०३
दसविधो परिधम्मो गाणदंसण-चरिताणि या तं असिंघणाए, गाणे अपुण्यहणं पुष्याधीतं च गुणाति हंसणे निस्संतादि चरिते अड
(ख) वृत्ति, पत्र २०६ : साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिको दशविधः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यो वा । तम् 'अनुसंधयेत्' - वृद्धिमापादयेत्, तद्यथा--प्रतिक्षणमपूर्वज्ञानग्रहणेन ज्ञानं तथा शङ्कादिदोषपरिहारेण सम्यश्जीवादिपदार्थाधिगमेन च सम्यग् - दर्शनम् अस्खलित मूलो सरगुणसंपूर्णपालनेन प्रत्यहमपूर्वाग्रहग्रहणेन (च) चारित्रं (च) वृद्धिमापादयेदिति । ४. चूर्ण, पृ० २०३ : पावधम्मो - अण्णाण अविरति-मिच्छत्ताणि ।
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