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________________ सूयगडो १ ३५ अध्ययन ८: प्रामुख हेमन्त ऋतु में सौंठ के साथ, शिशिर ऋतु में पीपल के साथ और वसन्त ऋतु में मधु के साथ सेवन करने से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। यह काल के आधार पर द्रव्यों में होने वाले सामर्थ्य का निदर्शन है। भाववीयं इसके तीन प्रकार हैं-औरस्य बल (शारीरिक बल), इन्द्रिय बल और अध्यात्म बल । (१) औरस्य बल इसके चार प्रकार हैं-मनोबल, वचनबल, कायबल और प्राणापानबल । मनोबल जैसा औरस्य वीर्य होता है वैसी ही मानसिक पुद्गलों के ग्रहण की शक्ति होती है। शरीर का संहनन जितना सुदृढ़ हाता है उतने ही शक्तिशाली मानसिक पुद्गल ग्रहण किए जाते हैं। इसी प्रकार वचन, काय और आनापान बल भी संहनन की दृढ़ता के आधार पर होता है। इनके दो-दो प्रकार हैं-संभव और संभाव्य । संभव-तीर्थंकर और अनुत्तरविमानवासी देवों का मन बहुत पटु होता है। अवधिज्ञान से सम्पन्न अनुत्तरोपपातिक देव मन के द्वारा जो प्रश्न या शंका उपस्थित करते हैं, तीर्थकर उसका समाधान द्रव्य मन के द्वारा ही करते हैं क्योंकि उन देवों का सारा व्यापार मन से ही होता है। जो व्यक्ति बुद्धिमान् द्वारा कही गई बात को वर्तमान में समझने में असमर्थ है, किन्तु अभ्यास के द्वारा अपनी बुद्धि को पटु बनाकर वह भविष्य में उसे समझ लेगा, यह उसका संभाव्य वीर्य है। वचनबल इसके भी दो भेद हैं ---संभव और संभाव्य । तीर्थंकरों की वाणी एक योजन तक फैलती है और सभी सुनने वाले उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। इसी प्रकार क्षीरास्रवलब्धि, मध्वास्रवलब्धि आदि लब्धियों से संपन्न व्यक्तियों की वाणी बड़ी मीठी होती है। हंस, कोयल आदि पक्षियों का स्वर मीठा होता है। यह संभव वाचिक वीर्य है। यह संभावना की जाती है कि श्रावक का पुत्र बिना पढ़े-लिखे भी उचित बोलने योग्य अक्षर ही बोलेगा। शिक्षित किए जाने पर तोता-मैना आदि भी मनुष्य की बोली बोलने लगते हैं । यह संभाव्य वीर्य है। कायिक बल इसके भी दो भेद हैं-संभव और संभाव्य । चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव का जो स्वाभाविक बाहुबल है वह संभववीर्य है । त्रिपृष्ठ वासुदेव ने बाएं हाथ की हथेली से करोड़ों मन की शिला उठा ली थी। एक ओर सोलह हजार राजाओं की सेनाओं के आदमी एक सांकल को खींचते हैं और दूसरी ओर वासुदेव खींचते हैं तो वासुदेव अपनी ओर सभी मनुष्यों को खींच लेते हैं। तीर्थकरों का कायवीर्य अपरिमित होता है। यह संभव कायवीर्य है। संभाव्य कायवोर्य तीर्थंकर लोक को अलोक में गेंद की भांति फेंक सकते हैं । वे मेरु पर्वत को दंडे की भांति ग्रहण कर पृथ्वी को छत्र की तरह धारण कर सकते हैं। कोई इन्द्र जंबूद्वीप को बाएं हाथ से छत्र की तरह तथा मेरु पर्वत को डंडे की तरह सहज ही उठा सकता है। यह संभव है कि यह लड़का बड़ा होकर इस शिला खंड को ऊपर उठाएगा, इस मल्ल के साथ लड़ेगा, हाथी को वश में Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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