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________________ सूयगडो १ अध्ययन ८:प्रामुख (ख): अचित्त वीर्य) आहार, स्निग्ध पदार्थ, भक्ष्य और भोज्य पदार्थों की शक्ति को अचित्त वीर्य कहा जाता है। इसी प्रकार कवच आदि आवरणों का तथा अन्यान्य शस्त्रों की शक्ति भी अचित्त वीर्य कहलाती है । आहार में काम आने वाले पदार्थों की शक्ति भिन्न-भिन्न होती है। जैसे घेवर प्राणों को उत्तेजित करने वाला, हृदय को प्रसन्न करने वाला और कफ का नाशक होता है। इसी प्रकार औषधियों की भी अपनी-अपनी शक्ति होती है । शल्य को निकालने, घाव भरने, विष के प्रभाव को दूर करने, बुद्धि को वृद्धिंगत करने-ये भिन्न-भिन्न औषधियों की शक्तियां हैं। कुछ विषघाती द्रव्य ऐसे होते हैं जिनको सूंघने मात्र से विष निकल जाता है। कुछ ऐसे होते हैं जिनका लेप करने से विष दूर होता है । कुछ के आस्वाद मात्र से विष नष्ट हो जाता है। एक द्रव्य ऐसा होता है जिसकी सरसों जितनी गुटिका रोएं को उखाड़कर उस स्थान में लगाने से, वह विष को सारे शरीर में फैला देती है या सारे शरीर के विष को निकाल देती है। एक द्रव्य ऐसा होता है जिसको खा लेने पर एक महीने तक भूख नहीं लगती, शक्ति की हानि भी नहीं होती। कुछ द्रव्यों के मिश्रण से बनी हुई बाती पानी से भी जल उठती हैं। कश्मीर आदि प्रदेशों में लोग कांजी से दीया जलाते हैं।" इस प्रकार विभिन्न द्रव्यों में चामत्कारिक शक्तियां होती हैं । उनका विवरण प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ है-योनि प्राभृत ।' यह द्रव्य-वीर्य का कुछ विवरण है। इसी प्रकार क्षेत्र और काल वीर्य भी होता है । क्षेत्रवीर्य जैसे देवकुरु आदि क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले सभी द्रव्य विशिष्ट शक्ति-संपन्न होते हैं । दुर्ग आदि में स्थित पुरुष का उत्साह वृद्धिंगत होता रहता है। यह भी क्षेत्रवीर्य है। काल की भी अनन्त शक्ति होती है । जैसे सुषम-सुषमा या सुषमा काल में कालहेतुक बल विशिष्ट होता है । अथवा भिन्नभिन्न पदार्थों में कालहेतुक बल होता है। आयुर्वेद ग्रन्थों में भी काल के प्रभाव से होने वाली गुणवृद्धि का स्पष्ट उल्लेख है-- 'वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चापलकरसो घतं वसन्ते गुडो वसन्तस्यान्ते ॥' वर्षा ऋतु में नमक, शरद् ऋतु में पानी, हेमन्त में गाय का दूध, शिशिर में आंवले का रस, वसन्त में घी और ग्रीष्म में गुड़-ये अमृततुल्य हो जाते हैं। 'ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धऽम्बरे, तुल्यां शर्करया शरद्यमलया शुण्ठ्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रण संयोजिता, पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु ते शत्रवः ॥ ग्रीष्म ऋतु में हरड़ बराबर गुड़ के साथ, वर्षा ऋतु में सैन्धव नमक के साथ, शरद् ऋतु में बराबर शक्कर के साथ, १. वृत्ति, पत्र १६५ : 'सद्यः प्राणकरा हुद्याः, धतपूर्णाः कफापहाः। २. चूणि, पृ० १६३ : तं विसल्लीकरणी पादलेवो मेधाकरणोओ य ओसधीओ। विसधातीणि य दव्वाणि गंध-आलेव-आस्वादमात्राच्च विषं णासन्ति । ३. वही, पृ० १६३ : सरिसवमेत्ताओ वा गुलियाओ वा लोमुक्खणणामेत्ते खेत्ते विषं गदो वा अगदो वा भवति । ४. वही, पृ० १६३ : अन्यद्रव्यमाहारितं मासेणापि किल क्षुधां न करोति न च बलग्लानिर्भवति । ५. वही, पृ० १६३ : किञ्च केषाञ्चिद् द्रव्याणां संयोगेन वत्ती आलिता उदकेनापि दीप्यते। कस्मीरादीषु च कालिकेनापि दीपको दीप्यते। ६. (क) चूणि, पृ० १६३ : योनिप्राभृतादिषु वा विभासितव्वं । (ख) वृत्ति, हत्र १६५ : तथा योनिप्राभृतकान्नानाविधं द्रव्यवीर्य द्रष्टव्यमिति । ७. (क) चूणि, पृ० १६३ । __ (ख) वृत्ति, पत्र २६६ । ८. वृत्ति, पत्र १६६ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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