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आमुख
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'वीर्य' है । यह वर्ण्य-विषय के आधार पर किया गया नामकरण है । इसमें सभी प्रकार के वीयोंशक्तियों का वर्णन है । चेतन भी वीर्यवान् होता है और अचेतन भी वीर्यवान् होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर चेतन और अचेतन में शक्तियां अभिव्यक्त होती हैं, न्यूनाधिक होती हैं ।
चौदह पूर्वो में तीसरा पूर्व है- वीर्यप्रवाद । इसमें विभिन्न वीर्यों का विस्तार से वर्णन है । पूर्वो में वर्णित ज्ञानराशि को उपमा द्वारा समझाया गया है
'सव्व णईणं जा होज्ज बालुआ गणणमागया सन्ती। तत्तो बहुयतरागो अत्थो एगस्स पुश्वस्स ।।' 'सव्व समुद्दाणजलं जइपत्थमियं हविज्ज संकलियं ।
एत्तो बहुयतरागो अत्यो एगस्स पुवस्स ॥' -सभी नदियों के बालुकणों की जो संख्या है उससे भी बहुत अधिक अर्थवाला होता है एक पूर्व । -सभी समुद्रों के पानी का जितना परिमाण होता है उससे भी अधिक अर्थ वाला होता है एक पूर्व । प्रस्तुत अध्ययन में सताईस श्लोक हैं । उनका विषय वर्गीकरण इस प्रकार है - श्लोक १-२ कर्म वीर्य है।
३ प्रमाद वीर्य है।
४-६ बालवीर्य का विवेचन । १०-२२ पंडित वीर्य का विवेचन । २३ अबुद्ध का पराक्रम ।
२४-२७ बुद्ध का पराक्रम । इनमें मुख्यतः पंडितवीर्य, बालवीर्य और बालपंडित-वीर्य का प्रतिपादन है । वीर्य का अर्थ है-शक्ति, बल । उसके तीन प्रकार हैं-सचित्त वीर्य, अचित्त वीर्य और मिश्र वोर्य । सचित्त वीर्य तीन प्रकार का है१. मनुष्यों का-अर्हत, चक्रवर्ती, बलदेव आदि का वीर्य । २. पशुओं का-हाथी, घोडा, सिंह, व्याघ्र, वराह, अष्टापद आदि का वीर्य । जैसे भेड़िया उछलकर भेड़ को मार डालता
है वैसे ही अष्टापद उछलकर हाथी को मार डालता है। यह अष्टापद की शक्ति है। ३. निर्जीव पदार्थों का-जैसे गोशीर्षचन्दन का लेप ग्रीष्मकाल में दाह का नाश करता है और शीतकाल में शीत का नाश
करता है। जैसे रत्नकंबल शीतकाल में गरम होती है और गरमी में ठंडक पैदा करती है। जैसे चक्रवर्ती का गर्भगृह
(अन्डरग्राउन्ड) शीतकाल में गरम और ग्रीष्म में ठंडा होता है ।' १. (क) चूणि, पृ० १६५ । (ख) वृत्ति, पत्र १६७ । २. चूणि, पृ० १६३ : चतुष्पदाणं तु अस्सरयण-हत्थिरयण-सीह-वग्घ-वराह-सरमादीण, सरभो किल हस्तिनमपि वृक इव औरणकं उक्खि
विऊण अ वज्यति । ३. (क) चूणि, पृ० १६३ : गोसीसचंदणस्स उण्ह काले डाहं णासेति, तधा कंबलरयणस्स सीयकाले सीतं उसिणकाले उण्हा णासेति,
तधा चक्कवट्टिस्स गन्मगिहं सोते उण्हं उण्हे सीतं । (ख) वृत्ति, पत्र १६५ : तथाऽपदानां गोशीर्षचन्दनप्रभृतीनां शीतोष्णकालयोरुष्णशीतवीर्यपरिणाम इति ।
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