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सूयगडा १
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अध्ययन
प्रामुख
कर लेगा तथा घोड़े को दौड़ाएगा। २. इन्द्रिय-बल-इसके भी दो प्रकार हैं-संभव और संभाव्य ।
जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का संभव बल यह है कि वह बारह योजन तक के शब्द को सुन सकता है । इसी प्रकार शेष चारों इन्द्रियों का अपना-अपना संभव बल है।
संभाव्य बल-जैसे किसी मनुष्य की इन्द्रियां नष्ट नहीं हुई हैं, किन्तु वह थका-मांदा है, क्रोधित है, प्यासा है, तो वह अपनी इन्द्रियों से विषयों को यथावत् ग्रहण नहीं कर पायेगा । ज्यों ही उसके ये दोष उपशान्त होंगे, वह पुनः विषय-ग्रहण में उपयुक्त हो जाएगा। ३. आध्यात्मिक बल-आन्तरिक शक्ति से या सत्त्व से उत्पन्न बल अध्यात्मिक बल है । उसके नौ प्रकार हैं
१. उद्यम वीर्य-ज्ञान के उपार्जन में या तपस्या आदि के अनुष्ठान में किया जाने वाला उद्यम । २. धृति वीर्य-संयम में स्थिरता, चित्त की उपशान्त अवस्था । ३. धीरता वीर्य-कष्ट-सहिष्णुता । ४. शौंडीर्य वीर्य-त्याग की उत्कट भावना । छह खंडों के राज्य का त्याग करते हुए भी भरत चक्रवर्ती का मन कम्पित
नहीं हुआ। यह त्याग का उत्कर्ष है । इसका दूसरा अर्थ है-आपत्ति में अखिन्न रहना। इसका तीसरा अर्थ है-विषम परिस्थिति आने पर भी, किसी आवेश की बाध्यता से नहीं किन्तु प्रसन्नता से 'यह मुझे
करना है-इस दृष्टि से उस कार्य को पूरा करना । ५. क्षमावीर्य-दूसरे के द्वारा अपमानित होने पर भी क्षुब्ध न होना। ६. गाम्भीर्य वीर्य-कष्टों से पराजित न होना। इसका दूसरा अर्थ है-चमत्कारिक अनुष्ठान करके भी अहंभाव न लाना ।
'चुल्लुच्छलेइ जं होइ ऊणय रित्तयं कणकणेइ ।
भरियाई ण खुम्भंती सुपुरिसविन्नाणभंडाई॥' जो घड़ा थोड़ा खाली होता है, वह छलकता है। जो घड़े पूर्ण रिक्त होते हैं वे आपस में संघट्टित होकर आवाज करते हैं । जो पूरे भरे होते हैं, वे कभी नहीं छलकते । ७. उपयोग वीर्य-चेतना का व्यापार करना । ज्ञेय पदार्थ को जानना और देखना। ८. योग वीर्य(क) मनोवीर्य- अकुशल मन का निरोध, कुशल मन का प्रवर्तन । मन को एकाग्र करना। मनोवीर्य से ही निर्ग्रन्थों
के परिणाम वर्धमान और अवस्थित होने हैं। (ख) वाग्वीर्य-अपुनरुक्त तथा निरवद्य वाणी का प्रयोग ।
(ग) कायवीर्य-कछुए की भांति शरीर में अवयवों को समाहित कर निश्चल होना। ६. तपोवीर्य-यह बारह प्रकार की तपस्याओं के कारण बारह प्रकार का है। तदध्यवसित होकर तपस्या करना तपोवीर्य
है । सतरह प्रकार के संयम में एकत्व आदि भावना से भावित होकर 'संयम में कोई अतिचार न लग जाए' इस प्रकार सावधानीपूर्वक जो संयम का पालन करता है, वह भी तपोवीर्य है।
-अध्यात्मवीर्य के ये नौ भेद हैं। सभी प्रकार के भाववीर्य के तीन-तीन प्रकार हैं-पंडित भाववीर्य, वाल भाववीर्य और बाल-पंडित भाववीर्य । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने वीर्य के तीन प्रकार और किए हैं । उनका आधार है भाव
१. क्षायिक वीर्य-क्षीण कषाय अर्थात् वीतराग का वीर्य । २. औपशमिक वीर्य-उपशान्त कषाय वालों का वीर्य । ३. क्षायोपशमिक वीर्य-शेष सभी प्राणियों का वीर्य । चरित्र मोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम और उपशम के आधार पर विरति भी क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक
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