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________________ सूयगडो १ १. ब्रह्मचर्य - आचार का विनाश। २. प्राणियों का अवध - काल में वध । ३. भिक्षाचरों के दान में बाधा । ४. गृहस्वामी या घर वालों को क्रोध । ५. ब्रह्मचर्य में बाधा | ६. गृहस्वामिनी या वहां उपस्थित अन्य स्त्री के प्रति आशंका की उत्पत्ति । ४०८ इसका अपवाद सूत्र यह है कि जो मुनि जराग्रस्त है, जो रोगी है या जो तपस्वी है वह गृहस्थ के अन्तर्घर में बैठ सकता है । " ७३. सावद्य प्रश्न पूछना (संपुच्छणं ) वृत्तिकार ने 'गितरे' के दो अर्थ किए हैं-घर के बीच में या दो घरों के बीच की गली में । " विशेष विवरण के लिए देखें- दसवेआलियं पृ० ३२५- ३२७ । Jain Education International चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ दिए हैं १. अमुक व्यक्ति ने यह काम किया या नहीं - गृहस्थ से यह पूछना । २. अपने अंग - अवयवों के बारे में दूसरे से पूछना, जैसे मेरी आंखें कैसी हैं ? ये सुन्दर लगती हैं या नहीं ? आदि । ३. रोगी (गृहस्थ ) से पूछना - तुम कैसे हो ? तुम कैसे नहीं ? अर्थात् गृहस्थ रोगी से कुशल प्रश्न करना । वृतिकार ने इसके दो अर्थ दिए है-' १. गृहस्थ के घर में जाकर उसका कुशल-क्षेम पूछना | २. अपने शरीर या अवयवों के विषय में पूछना । विशेष विवरण के लिए देखें - दशवैकालिक ३ । ३ का टिप्पण | ७४. भुक्त भोग का स्मरण (सरणं) इसका अर्थ है - पूर्वभुक्त कामक्रीड़ा का स्मरण करना। मुनि गृहस्थावस्था में अनुभूत भोगों की स्मृति न करे । यह भी एक अनाचार है । श्रध्ययन ६ : टिप्पण ७३-७४ दशकालिक सूत्र ( ३६ ) में 'आउरस्सरण' तथा उत्तराध्ययन सूत्र ( १५८) में 'आउरे सरणं' पाठ उपलब्ध होता है । 'सरण' शब्द के दो संस्कृत रूप बनते हैं स्मरण और शरण । स्मरण का अर्थ है-याद करना और शरण का अर्थ हैत्राण, घर, आश्रय स्थान । इन दो रूपों के आधार पर इसके अनेक अर्थ होते हैं । -- चूर्णिकार और वृत्तिकार ने 'स्मरण' के आधार पर ही इसका अर्थ किया है । देखें-- दशवैकालिक ३।६ का टिप्पण | १. दशवेकालिक, ६०५६ : तिन्हमन्नधरागस्स, निसेज्जा जस्स कपई । जराए अभिभूवरस वापिस तवस्त्रिणो ॥ २. वृति पत्र १२ गृहस्यान्समध्ये गृहोर्यामध्ये ३ चूर्णि, पृ० १७९ : संपुच्छणं णाम किं तत् कृतं ? न कृतं वा ? संपुच्छावेति अण्णं केरिसाणि मम अच्छोणि ? सोभंते ण वा ? इत्येवमादि, ग्लानं वा पुच्छति कि ते वट्टति ? ण वट्टति वा ? | ४. वृत्ति, पत्र १८२ : गृहस्थगृहे कुशलादित्रच्छनं आत्मीयशरीरावयवप्रच्छ ( पुञ्छ ) नं वा । ५. (क) चूर्णि, पृ० १७६ : सरणं पुवरत पुग्वकीलियाणं । (ख) वृति पत्र १५२ पूर्वकीडितस्मरणम् । - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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