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________________ सूयगडो १ ४०७ अध्ययन ६ : टिप्पण ६९-७२ में अन्न-पान न खाए । दशवकालिक सूत्र में गृहस्थ के बर्तन में खाने से होने वाले दो दोषों का उल्लेख है। उसके अनुसार गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने से पश्चात्-कर्म और पुर:-कर्म दोष की संभावना होती है । गृहस्थ बर्तनों को सचित्त जल से धोता है और उस जल को बाहर फैकता है। इसमें छहों प्रकार के जीवों की हिंसा की संभावना है।' वृत्तिकार ने तीन कारणों का निर्देश किया है१. पुरः कर्म और पश्चात् कर्म का भय बना रहता है। २. गृहस्थ के बर्तनों के चोरी हो जाने की संभावना रहती है। ३. हाथ मे गिर कर बर्तनों के टूट जाने का भय रहता है। (विशेष विवरण के लिए देखें-दशवकालिक ६।५१,५२ का टिप्पण) ६६. अचेल होने पर भी गृहस्थ का वस्त्र (परवत्थं अचेलो वि) इस पद का अर्थ है कि मुनि अचेल होने पर भी गृहस्थ का वस्त्र न ले । चूर्णिकार का कथन है कि मुनि अचेल हो जाने पर भी गृहस्थ के वस्त्रों को काम में न ले। क्योंकि मुनि यदि गृहस्थ के वस्त्र काम में लेकर लौटाता है तो गृहस्थ उनको पहले या पीछे कच्चे जल से धोता है, इससे पश्चात्-कर्म और पुरःकर्म का दोष लगता है । तथा उन वस्त्रों के चोरी हो जाने या फट जाने का भी भय रहता है । अतः मुनि गृहस्थ के कपड़ों को काम में न ले।' निशीथ १२१११ में परवस्त्र के स्थान पर गृहिवस्त्र का प्रयोग मिलता है । चूणिकार ने इसका अर्थ प्रातिहारिक वस्त्र-काम में लेकर पुनः दिया जाने वाला बस्त्र-किया है।' श्लोक २१: ७०. आसंदी (आसंदी) - इसका अर्थ है-बैठने का एक प्रकार का उपकरण, कुर्सी । चूणि कार के अनुसार काष्ठपीठ को छोड़कर सभी आसन इस शब्द से गृहीत हैं। देखें-दशवकालिक ३३५ में 'आसंदी' का टिप्पण । ७१. पलंग (पलियंके) देखें-दशवकालिक ६।५३, ५४, ५५ के टिप्पण । ७२. घर के भीतर बैठना (णिसिज्जं च गिहतरे) ___ इस पद की भावना का विस्तार दशवकालिक सूत्र के (६।५६-५६) इन चार श्लोकों में है। वहां निर्देश है कि भिक्षा के लिए प्रस्थित मुनि गृहस्थ के अन्तरगृह में न बैठे। क्योंकि वहां बैठने से ये दोष उत्पन्न हो सकते हैं१. दशवकालिक ६.५१, ५२ : सीओदगसमारंभे, मत्तधोयणछडडणे । जाई छन्नति भूयाई दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥ पच्छाकम्मं पुरेकम्म, सिया तत्य न कप्पई । एयमझें न भुजति, निग्गंथा गिहिमायणे । २. वृत्ति पत्र १८१: परस्य --- गृहस्थस्यामत्रं-भाजनं परामत्रं तत्र पुरःकर्मपश्चात्मककर्मभयात् हुतनष्टाविदोषसम्भवाच्च । ३. चूणि, पृ० १७६ : परस्य वस्त्रं गृहिवस्त्रमित्यर्थः, तत् तावत् सचेलो बर्जयेत, मा भूत पश्चात्कर्मदोषः हुत-नष्टदोषश्च, यद्यपचेलकः __ स्यात्, एवं तावत सचेलकस्य । ४. निशीथ, १२।११: चूणि । ५. चूणि, पृ० १७६ : आसंदीत्यासंदिका सर्वा आसनविधिः अन्यत्र काण्ठपीठकेन । For Private & Personal Use Only Jain Education Intemational www.jainelibrary.org ain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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