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सूयगडो १
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अध्ययन : टिप्पण ७५-७७
श्लोक २२:
७५. श्लोक २२:
प्रस्तुत श्लोक में यश, कीत्ति, श्लोक, वंदना और पूजना-ये शब्द आए हैं । चूर्णिकार ने यश की दो अवस्थाओं का वर्णन किया है -पूर्वावस्था और उत्तरावस्था । गृहस्थावस्था में दान, बुद्धि, आदि के कारण यश था। मुनि अवस्था में तप, पुजा और मत्कार आदि के कारण यश होता है । मुनि के लिए ये दोनों अवस्थाओं के यश वांछनीय नहीं है। इस यश का कीर्तन करना यशकत्ति है। श्लोक का अर्थ है-श्लाघा । जाति, तप, बहुथ तता आदि के द्वारा अपनी श्लाघा करना।'
वृत्तिकार ने इनका अर्थ इस प्रकार किया है१. यश-----अनेक यूद्धों में विजय प्राप्त करने के कारण शोय की जो प्रसिद्धि होती है वह यश कहलाता है। २. कीति-दान देने से होने वाली प्रसिद्धि कीत्ति है। ३. प्रलोक-जाति, तप और बहुश्रु तता से होने वाली प्रसिद्धि श्लोक-श्लाघा है।
वंदना-देवेन्द्र, असुरेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि विशिष्ट व्यक्तियों से वंदित होना बंदना है। ५. पूजना-ये विशिष्ट व्यक्ति सत्कारपूर्वक जो वस्त्र आदि देते हैं, वह पूजना है।
कालिक सत्र (९।४। सूत्र ६) में अन्य शब्दों के साथ कीत्ति और श्लोक-ये दो शब्द भी आए हैं। व्याख्याकारों ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है
कत्ति-दुसरो के द्वारा किया जाने वाला गुणकीर्तन ।' सर्वदिग्व्यापी प्रशंसा ।
२. श्लोक-ख्याति । स्थानीय प्रशंसा ।। ७६. काम (कामा)
विषयासक्त मनुष्यों द्वारा काम्य ईष्ट शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्श को काम कहते हैं। काम दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यकाम और भावकाम । भावकाम दो प्रकार के हैं१. इच्छाकाम-विषय की अभिलाषा । २. मदनकाम-अब्रह्मचर्य का भोग । देखें-दशवकालिक २११ का टिप्पण ।
श्लोक २३ :
७७. श्लोक २३:
प्रस्तुत श्लोक का अर्थ करने में चूणि कार और वृत्तिकार असंदिग्ध नहीं रहे हैं, ऐसी उनकी व्याख्या से प्रतीत होता है। १. चूणि, पृ० १७६ : दानबुढ्यादि पूर्व यशः, तपः-पूजा-सत्कागदि पश्चाद् यशः, यशः एव कीर्तनं जसकित्ती। सिलोगो णाम श्लाघा
जाति-तपो-बाहुश्रुत्यादिभिरात्मानं (न) श्लाघेत ।। २. वृत्ति, पत्र १८२: बहुसमरसङ्घट्टनिर्वहणशौयलक्षणं यशः, दानसाध्या कोतिः, जातितपोबहुश्रुतत्वादिजनिता श्लाघा, तथा या च
सुरासुराधिपतिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवादिभिर्वन्दना तथा तैरेव सत्कारपूर्विका वस्त्रादिना पूजना । ३. दशवकालिक ६।४।६, अगस्त्य चूणि, पृ० : परेहि गुणसंसद्दणं कित्ती। ४. वही, हरिभद्रीया वृत्ति, पत्र २५७ : सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीतिः । ५. वही, अगस्त्य चूणि, पृ० : परेहिं पूरणं सिलोगो। ६. वही, हरिभद्रीया वृत्ति, पत्र २५७ । तत्स्थान एव श्लाघा ।
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