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सूयगडो ।
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अध्ययन :: टिप्पण ८६-६३ जैसे-कांइ रे हेल्ल । 'होला' का अर्थ है साथी।'
दशवकालिक सूत्र (७.१४ और १६) में 'होल' शब्द आया है। चूणिकार अगस्त्यसिंह स्थविर ने उसे देशी शब्द मान कर उसका अर्थ-निष्ठुर आमंत्रण किया है।
दूसरे चूर्णिकार जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ मधुर आमंत्रण किया है । विशेष विवरण के लिए देखें-दशवकालिक ७।१४-१७ के टिप्पण ।
तुलना के लिए देखें-आयारचूला ४११२-१५ । ८९. हे मित्र ! (सहीवायं)
मुनि सखिवाद का प्रयोग न करे । वह किसी को 'सखा' कह कर संबोधित न करे। १०. हे अमुक-अमुक गोत्र वाले (गोयवायं)
गोत्र का वाद अर्थात् कथन । मुनि किसी को गोत्र से संबोधित न करे, जैसे-ब्राह्मण ! , क्षत्रिय! , काश्यपगोत्र ! इत्यादि ।'
चूर्णिकार ने इस शब्द के स्थान पर 'सोलवाद' पाठ मान कर उसका अर्थ-प्रियभाष किया है।' ६१. (तुमं तुमं ति......)
सम्मान्य, वृद्ध तथा समर्थ व्यक्तियों को मुनि 'तू तू' ऐसा वचन सर्वथा न कहे ।'
जो श्रेष्ठ पुरुष बहुवचन में कहे जाने योग्य हैं उन्हें तिरस्कार प्रधान एक वचन तू-तू न कहे । इसी प्रकार दूसरों को अपमानित करने वाला वचन साधु सर्वथा न बोले।'
श्लोक २८ १२. संसर्ग न करे (णो य संसग्गियं भए)
___ भिक्षु कुशील का संसर्ग न करे, परिचय न करे । नियुक्तिकार ने पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशील-इन तीनों के संसर्ग का निषेध किया है। उनके साथ आना-जाना, उन्हें देना, उनसे लेना, उनके साथ प्रवृत्ति करना-ये सारे संसर्ग हैं। ६३. उनके संसर्ग में अनुकूल उपसर्ग (सुहरूवा तत्थुवसग्गा)
कूशील के संसर्ग से अनुकूल उपसर्ग उत्पन्न होते हैं । इसका तात्पर्य है कि साधक के मन में सुख-सुविधा की भावना उत्पन्न होती है और वह संयम में शिथिल हो जाता है।
चूर्णिकार ने 'सुहरूवा' के दो अर्थ किए हैं१. चूणि, पृ० १८१ : होला इति देसीभाषात: समवया आमन्त्र्यते, यथा लाटानां 'काई रे हेल्ल' ति । २. (क) चूणि, पृ० १८१ : सहीवादमिति सखेति ।
(ख) वृत्ति, पत्र १८३ : सखेत्येवं वादः सखिवादः । ३. वृत्ति, पत्र १८३ : तथा गोत्रोद्घाटनेन वादो गोत्रवादो यथा काश्यपसगोत्र वशिष्ठसगोत्रे वेति । ४ चूणि, पृ० १८१ : सोलवादो प्रियभाष इव । 'गोतावादो' वा पठ्यते । ५. चूणि, पृ० १८१: जो अतुमंकरणिज्जो वृद्धो वा प्रभविष्णुर्वा स न वक्तव्यः । ६. वृत्ति, पत्र १८३ : 'तुमं तुम' ति तिरस्कारप्रधानमेकवचनान्तं बहुवचनोच्चारणयोग्ये 'अमनोज' मनः प्रतिकूलरूपमन्यदप्येवम्भूतमप
मानापादकं 'सर्वशः'- सर्वथा तत्साधूनां वक्तुं न वर्तत इति । ७ सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ६५ पासत्थोसण्ण-कुसीलसंथवो ण किर वट्टते कातुं । ८. चूणि पृ० १८१ : संसर्जनं संसर्गिः, आगमण-दाण-ग्रहणसम्प्रयोगान्मा भूत् । ६. चूणि, पृ० १८१ : सुखरूपा नाम सुखस्पर्शाः........ अहवा सुख इति संयमः, संयमानुरूपाः ।
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