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सूयगडी १
१. सुख स्पर्श वाले अर्थात् सुख-सुविधा जनक |
२. संयमानुरूप
यहां सुख का अर्थ है-संयम ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ- सुख-सुविधा के स्वभाव वाले किया है।' कुशील के साथ परिचय बढ़ने से साधक के मन में कठोर चर्या या संयम-चर्या के नियमों के प्रति वितर्क उत्पन्न होने लगते हैं । वह सोचता है - प्रासुक जल से पैरों और दांतों को धोने में दोष ही क्या है ? शरीर पर उबटन करने में क्या दोष है ? ऐसा करने से लोगों में अपवाद भी नहीं होता ।
शरीर के बिना धर्म नहीं होता इसलिए आधाकर्म आहार में क्या दोष हो सकता है ? इसी प्रकार जूते पहनने और छत्ता धारण करने में भी क्या आपत्ति है ? यदि रात्री में संचय भी किया जाता है तो क्या दोष है ? इसलिए धर्म के आधारभूत शरीर को जो आवश्यक हो, उनका उपयोग करना चाहिए। कहा भी है- जो थोड़े दोष से भी अधिक लाभ कमाता है, वही पंडित है । एक संस्कृत श्लोक में शरीर के वैशिष्ट्य को इस प्रकार बताया है
'शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः ।
शरीरात् स्रवते धर्मः पर्वतात् सलिलं यथा ॥
शरीर धर्म से युक्त है-धर्म का साधन है । अतः प्रयत्नपूर्वक उसकी रक्षा करनी चाहिए। जैसे पर्वत से पानी भरता है, वैसे ही शरीर से धर्मं उत्पन्न होता है, पुष्ट होता है ।
१४. बिना (अण्णत्थं)
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कुशील व्यक्ति यह भी कहते हैं कि आज के
युग में संहनन - शरीर का संघटन कमजोर और दुर्बल है तथा धृति भी क्षीण है । इसलिए जैसे-तैसे संयम का पालन करना भी अच्छा ही है ।"
इलोक २६ :
अन्यत्र अव्यय है । इसका अर्थ है - बिना ।
१५. गृहस्य के घर में (परगेहे)
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६६. श्लोक २६
अध्ययन : टिप्पण ६४-१६
पर का अर्थ है - गृहस्थ । परगेहे अर्थात् गृहस्थ के घर में । *
प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरणों का प्रतिपाद्य है कि मुनि किसी बाधा के बिना गृहस्थ के घर में न बैठे ।
प्रस्तुत अध्ययन के इक्कीसवें श्लोक में 'णिसिज्जं च गिहंतरे' यह चरण उपलब्ध है ।
दोनों स्थलों की भावना समान है ।
दशवेकालिक के सूत्र अनुसार वृद्ध, रोगी और तपस्वी मुनि गृहस्थ के घर में बैठ सकता है ।"
प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'अंतराय' शब्द इसी अपवाद का द्योतक है । अन्तराय का अर्थ है - बाधा, शक्ति का अभाव । शक्ति
१. वृत्ति, पत्र १८३ : 'सुखरूपाः' - सातगौरवस्वभावाः ।
२. चूर्ण, पृ० १८१ : संसर्गिस्तद्द्भावं गमयति । कथम् ? तद्यथा— को फालुगपाणएण पादेहिं पक्खालिज्जमाणेहिं दोसो ?, तहा दंत
पाल
एवं लोगे वो न भवति ।
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३. वृत्ति, पत्र १८४ : तथा नाशरीरो धर्मो भवति इत्यतो येन केनचित्प्रकारेणाधाकर्म सन्निध्यादिना तथा उपानच्छत्रादिना च शरीरं
धर्माधारं वर्तयेत् । तथा साम्प्रतमल्पानि संहननानि अल्पधृतयश्च संयमे जन्तवः ।
४. वृत्ति पत्र १०४ परो-हत्यातस्य गृहं परगृहम् ।
५. दशवेकालिक ६।५९: तिन्हमन्नयरागस्स निसेज्जा जस्स कप्पई ।
जराए अभिभूयस्स वाहियस्स तबस्सियो ।
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