________________
सूयगडो १
४१३
अध्ययन :: टिप्पण ८६-८८
नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे। यद्यपि ऐसा कहना असत्य नहीं है, किन्तु ये वचन मर्म को बींधते हैं, पीड़ा उत्पन्न करते हैं, अत: इसका निषेध है। इसी प्रकार दास को दास न कहे, राज्य-विरुद्ध सत्य भाषा न बोले अथवा जानते हुए भी यह न कहे कि इसने यह किया है।
जो इस प्रकार का सत्य बोलता है वह बोलने के बाद पछताता है। जो कटु सत्य बोलता है वह बंधन, घात आदि दुःखों को प्राप्त कर अनुताप करता है । अथवा निरपराध या सापराध व्यक्ति को दोषी ठहरा कर फिर स्वयं अनुताप करता है कि अरे ! मैंने यह क्या कर डाला।'
वृत्तिकार ने 'संतिमा तहिया' (सं० सन्ति इमाः तथ्या:) पाठ के स्थान पर 'तथिमा तइया' (सं० तत्रेमा तृतीया) पाठ मान कर व्याख्या की है । उनका कथन है कि चार भाषाओं में तीसरी भाषा है— सत्यामृषा। यह मिश्र भाषा है-कुछ सत्य है और कुछ असत्य । मुनि ऐसी भाषा न बोले।
इन शब्दों के आधार पर चूणिकार और वृत्तिकार की व्याख्या में बहुत अन्तर आ गया। जहां चूर्णिकार अवक्तव्य सत्य का निषेध करते हैं वहां वृत्तिकार मिश्र भाषा का निषेध करते हैं । यह अन्तर भिन्न पाठ की स्वीकृति के कारण आया है। ८६. हिंसाकारी वचन (छणं)
इसका संस्कृतरूप है-क्षणम् । यह 'क्षणु हिंसायाम्' धातु से निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-हिंसायुक्त वचन, जैसेखेत को काटो, गाड़ी को जोतो, बकरे को मारो, पुत्रों को काम में लगाओ, यह चोर है, इसका वध करो, इन बैलों का दमन करो। ५६. निर्ग्रन्थ (महावीर) को (णियंठिया)
महान् निर्ग्रन्थ भगवान् महावीर की यह आज्ञा (उपदेश) है, अथवा निर्ग्रन्थों के लिए यह आज्ञा उपदिष्ट है।' ८७. आज्ञा (आणा) यहां आज्ञा का अर्थ है-उपदेश ।'
श्लोक २७: ८८. हे साथी ! (होलावाय)
चुर्णिकार के अनुसार 'होला' शब्द देशी भाषा में समवयस्क व्यक्तियों के आमंत्रण के लिए लाट देश में प्रयुक्त होता था। १. दशवकालिक ७१११,१२। २. चुणि, पृ० १८१ : सन्तीति विद्यन्ते, तधिका नाम तथ्या, सद्भता इत्यर्थः । भाषन्त इति भाषा, अनेके एकादेशात् । जं वदित्ताऽण
तप्पती, स्वयमेव चोरः काणः दासस्तथा राजविरुद्धं वा लोकविरुद्धं वा एष वा इणमकासी, अनुतापो हि दुःखं
प्राप्य वा बन्ध-घातादि भवति, अप्राप्तस्य पर वा सागसं निरागसं वा दोषं प्रापयित्वा चानुतापो भवति । (ख) वृत्ति, पत्र १८३ । ३. वृत्ति, पत्र १८३ : 'तत्थिमा' इत्यादि, सत्या असत्या सत्यामृषा असत्यामृषेत्येवंरूपासु चतसृषु भाषासु मध्ये तत्रेयं सत्यामृषेत्येतदभि
धाना तृतीया भाषा, सा च किञ्चिन्मृषा किञ्चित्सत्या इत्येवंरूपा । ४. (क) चूणि पृ० १८१: 'छण हिंसायाम' यद्धि हिंसकं तन्न वक्तव्यम् । तद्यथा--लयतां केदारः, युज्यन्तां शकटानि, छागो वध्य
ताम्, निविश्यन्तां दारका इति । (ख) वृत्ति, पत्र १८३ : 'क्षणु हिंसायां' हिंसाप्रधानं, तद्यवा-वध्यतां चौरोऽयं लूयन्तां केदाराः, दम्यन्तां गोरथका
___इत्यादि। ५. चणि, पृ० १८१ : णियंठ इति निम्रन्थः एषा महाणियंठस्याऽऽज्ञा, णियंठाण वा एषा आज्ञा उपदिष्टा । ६. (क) चूणि, पृ० १८१ : आज्ञा नाम उपदेशः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १८३ : एषाऽऽज्ञा अयमुपदेशः।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org