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________________ सूयगडो १ ४१२ अध्ययन :: टिप्पण ८१-८४ मर्म को छूने से मुनि भी क्रोध के आवेश में आ जाता है तो फिर गृहस्थ क्रोध में आ जाए तो आश्चर्य ही क्या है ? ' ८१. बोले (वम्फेज्ज) चणिकार ने इसे देशी शब्द मान कर इसका अर्थ 'उल्लाप' किया है। अनर्थक बोलना, असंबद्ध बोलना-यह 'बम्फेज्ज' का वाच्य है।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ -- अभिलषेत्-इच्छा करे-किया है।' आचार्य हेमचन्द्र ने (४।१७६,१६२) में 'वंफई' का अर्थ-कांक्षति- इच्छा करना किया है।' ८२. मायिस्थान का (माइट्ठाणं) मायिस्थान का अर्थ है --माया प्रधान वचन ।' चूर्णिकार ने माया का अर्थ -आचरण को छिपाने की वृत्ति, कुछ करके मुकर जाना, भविष्य में किए जाने वाले आचरण का किसी को आभास न होने देना-किया है । वृत्तिकार के अनुसार दूसरे को ठगने के लिए अपने आचरण को छुपाना माया है । बोलते समय या नहीं बोलते समय या कभी भी मुनि माया प्रधान वचन न कहे, माया प्रधान आचरण न करे ।' ८३. सोचकर बोले (अणुवीइ वियागरे) मुनि सोचकर बोले। जब वह बोलना चाहे तब पहले-पीछे का ज्ञान कर, चिन्तन कर बोले । वह यह सोचे-यह वचन अपने लिए, पर के लिए या दोनों के लिए दुःखजनक तो नहीं है ? ऐसा चिन्तन करने के पश्चात् बोले । कहा भी है-पुब्वि बुद्धीए पेहित्ता, पच्छा वक्कमुदाहरे'--पहले बुद्धि से सोचकर, फिर बोले ।। श्लोक २६ : ८४. श्लोक २६ प्रस्तुत श्लोक के दो चरणों में अवक्तव्य सत्य के कयन से पछतावा होता है-इसका उल्लेख है। भाषा के चार प्रकार हैं-सत्य, असत्य, सत्यामृषा (मिश्र) और असत्यामृषा (व्यवहार)। इनमें दूसरी और तीसरी भाषा मुनि के लिए सर्वथा वर्जनीय है । सत्य और व्यवहार भाषा भी वही वचनीय है जो अनवद्य, मृदु और संदेह रहित हो। मुनि सत्य भाषा बोले। किन्तु जो सत्य भाषा परुष और महान् भूतोपघात करने वाली हो, वह न बोले। काने को काना, १. निशीथभाष्य, गाथा ४२८५ : जति ताव मम्मं परिघट्टियस्स मुणिणो वि जायते मण्णू । कि पुण गिहीणमण्णू, ण भविस्सति मम्मविद्धाणं ॥ २. चूणि, पृ० १८० : वंफेति णाम देसीभासाए उल्लावो वुच्चति, तदपि च अपार्थकं अश्लिष्टोक्तं बहुधा तं फेति त्ति वुच्चति । ३. वृत्ति, पत्र १८३ : न बफेज्जति नाभिलषेत् । ४. प्राकृत व्याकरण ४११६२ । ५. वृत्ति, पत्र १८३ : मातृस्थानं-मायाप्रधानं वचः। ६. चूणि, पृ० १८० : माया णाम गूढाचारता, कृत्वाऽपि निह्नवः करिष्यमाणश्च न तथा दर्शयत्यात्मानम् । ७. वृत्ति, पत्र १८३ : इदमुक्तं भवति -परवञ्चनबुढ्या गूढाचारप्रधानो भाषमाणोऽमाषमणो वाऽन्यदा वा मातृस्थानं न कुर्यादिति ।। ८. (क) वृत्ति, पत्र १८३ : यदा तु वक्तुकामो भवति तदा नैतद्वचः परात्मनोरुभयोर्वा बाधकमित्येवं प्राग्विचिन्त्य वचनमुदाहरेत्, तदु क्तम्-पुग्वि बुद्धीए पेहिता, पच्छा वक्कमुदाहरे । (ख) चणि, पृ० १८० : यदा वक्तुकामो भवति तदा पूर्वापरतोऽनुचिन्त्य वाहरे। ६. दशवकालिक ७.१-४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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