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सूयगडो १
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अध्ययन ६ : टिप्पण ७८-८०
श्लोक २४:
७८. श्रुतधर्म का उपदेश दिया (धम्म देसितवं सुतं)
भगवान् महावीर ने श्रुतधर्म का उपदेश दिया। चूर्णिकार का कथन है कि भगवान् ने श्र तधर्म के द्वारा चारित्र धर्म की देशना दी।
वृत्तिकार ने 'धम्म' और 'सुत्तं' को विशेष्य-विशेषण न मानकर स्वतंत्र माना है। उनके अनुसार भगवान् महावीर ने संसार को पार लगाने में समर्थ चारित्रधर्म और श्र तधर्म का उपदेश दिया।
श्लोक २५ : ७६. बोलता हुआ भी न बोलता-सा रहे (भासमाणो ण भासेज्जा) जो साधक भाषा समिति से युक्त है, वह बोलता हुआ भी अभाषक ही है। दशवकालिक नियुक्ति में बताया है'.---
वयणविभत्तीकुसलो वयोगतं बह विधं वियाणेतो।
दिवसं पि जंपमाणो सो वि हु वइगुत्ततं पत्तो।। -जो साधक भाषाविज्ञ है, वचन और विभक्ति को जानता है तथा अन्यान्य नियमों का ज्ञाता है, वह सारे दिन बोलता हुआ भी वचनगुप्त है।
नियमों के अनुसार वस्त्रों का उपयोग करने वाला सचेल मुनि भी अचेल कहलाता है, उसी प्रकार भाषा-समित मुनि भी अभाषक कहलाता है।
इस पद का वैकल्पिक अर्थ है - साधक अपने से बड़े या छोटे मुनियों के बात करते समय बीच में न बोले । दशवकालिक में इस अर्थ का समर्थन मिलता है।
वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार किया है जहां रत्नाधिक मुनि (या गृहस्थ) बोल रहे हों, उनके मध्य में 'मैं विद्वान् हूं'-इस अभिमान से दृप्त हो न बोले।' ५०. मर्मवेधी वचन (मम्मयं)
- इसका अर्थ है-मर्मवेधी वचन । यथार्थ हो या अयथार्थ, जिस वचन को बोलने से किसी के मन में पीड़ा होती हो वह मर्मवेधी वचन कहलाता है । वह सीधा मर्म को छूता है । साधक ऐसा वचन न बोले ।
वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में 'मामक' पाठ मान कर उसका अर्थ पक्षपातपूर्ण वचन किया है। मुनि बोलता हुआ या अन्य समय में पक्षपातपूर्ण वचन न कहे ।।
चुणिकार के अनुसार जाति, कुशील और तप आदि के मर्म को छूने वाला वचन मर्मक होता है।' १. चूणि, पृ० १८० : अनेन श्रुतधर्मेण चारित्रधर्म देशितवान्, चारित्रधर्मावशेषमेव श्रुतधर्मेऽत्र चारित्रधर्म देशितवान् । २. वत्ति, पत्र १८२ : स भगवान 'धर्म'-चारित्रलक्षण संसारोत्तारणसमर्थ तथा 'श्रुतं च' जीवादिपदार्थसंसूचकं 'देशितवान्'
प्रकाशितवान् । ३. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा २६३ । ४ चणिः पृ० १८० : यो हि भाषासमितः सो हि भाषमाणोऽयभाषक एव लभ्यते......... 'जधाविधीए परिहरमाणो सचेलो वि अचेल
एवापदिश्यते'.'...''अधवा भासमाणो ण भासेज्जा, ण रातिणियस्स अंतरभासं करेज्जा ओमरालिणियस्स वा। ५. वृत्ति, पत्र १८३ : यो हि भाषासमितः स भाषमाणोऽपि धर्मकथासम्बन्धमभाषक एवं स्यात ..... यदि वा-यत्रान्यः कश्चिद्
रत्नाधिको भाषमाणस्तत्रान्तर एब सश्रुतिकोऽहमित्येवमभिमानवान्न भाषेत । ६. वृत्ति, पत्र १८३ : मर्म गच्छतीति मर्मगं ... यद्वचनमुच्यमानं तथ्यमतथ्यं वा सद्यस्य कस्यचिन्मनः पीडामाधत्ते तद्विवेकी न भाषे
तेति भावः, यदि वा 'मामक'-ममीकारः पक्षपातः । ७. चूणि, पृ० १८० : जातिकुशोल-तवेहि मर्मकृद् भवतीति मर्मकम् ।
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