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________________ सूयगडो १ ६६. दुक्खी णिव्वदेज्ज एवं आयतुलं पाणेहि संजए । १२ । ६७. गारं पिव आपसे गरे अणपुखं पाणेहि संजए। समया सव्वत्थ सुव्वए देवाणं गच्छे ६८. सोचा मोहे सच्चे तत्थ भगवाणुसासणं करेज्जुवक्कमं । विणीयमच्छरे सव्वत्य उंछं भिक्खु विसुद्धमाहरे । १४ । ६९. स पुणो पुणो सिलोगपूयणं । सहिएऽहिपासए धम्मट्टी गुत्ते जुत्ते सया आयपरे सलोगयं |१३| णच्चा अहि उवहाणवीरिए । ७१. अग्भागमियम्मि ७२. सन्ये ७०. वित्तं पसवो य णाइओ तं वाले सरणं ति मण्णई। एए मम तेसि वा अहं णो ताणं सरणं ण विम्बई । १६। Jain Education International जए परमायतट्ठिए | १५ | अहयोवक्कमिए एगस्स गई य विदु मंता सरणं ण वा दुहे भवंतिए । सयकम्मकप्पिया अवियत्तेण दुहेण पाणिणो । हिंडति भयाउला सढा जाइजरामरणेहि भिड्या | १८ | आगई मण्णई | १७| ૪ दुःखी मोहे पुनः पुनः, निविद्यात् श्लोकपूजनम् । एवं सहितः अधिपश्येद्, आत्मतुलां प्राणैः संयतः ॥ अगारमपि च आवसन् प्राणेषु अनुपूर्व समता सर्वत्र सुव्रतः, देवानां गच्छेत् सलोकताम् ॥ श्र ुत्वा सत्ये तत्र सर्वत्र उच्छं भिक्षुः सर्वं धर्मार्थी गुप्तः आत्मपरः ज्ञात्वा युक्तः नरः, संयतः । भगवदनुशासनं, कुर्यादुपक्रमम् । विनीतमत्सरः, विशुद्धमाहरेत् ।। अधितिष्ठेत्, उपधानवीर्यः । सदा यतः, (परमायायिकः ॥ वित्त पशवश्च ज्ञातयः, तद् बालः शरणं इति मन्यते । एते मम तेषां वा अहं नो त्राणं शरणं न विद्यते ॥ अभ्यागमिके वा दु:खे, अथवा औपक्रमिके भवान्तिके । एकस्य गतिश्च आगति, विद्वान् मत्वा शरणं न मन्यते ॥ सर्वे स्वककर्मकल्पिता, अव्यक्तेन दुःखेन प्राणिनः । हिण्डन्ते भयाकुलाः शठाः, जातिजरामरणैरभिव्रताः For Private & Personal Use Only अ०२ वैतालीय श्लोक ६६-७२ 00 II ६६. दु:खी मनुष्य पुनः पुनः मोह को प्राप्त होता है । तुम श्लाघा और पूजा से विरक्त रहो। इस प्रकार सहिष्णु", और संयमी सब जीवों में आत्मतुला को देखे- उन्हें अपने समान समझे ६७. मनुष्य गृहवास में रहता हुआ भी क्रमशः प्राणियों के प्रति संयत होता है । वह सर्वत्र समभाव और श्रेष्ठ व्रतों को स्वीकार कर देवों की सलोकता (देवगति) को प्राप्त होता है।" ६८. भगवान् के अनुशासन को सुनकर सत्य को पाने का प्रयत्न करना चाहिए। भिक्षु सबके प्रति मात्सर्य" रहित होकर विशुद्ध उध (माधुकरी मिना ) " लाए। ६६. धर्मार्थी, तप में पराक्रम करने वाला, मन-वचन और शरीर से गुप्त, समाधिस्थ स्व और पर के प्रति सदा संयत, मोक्षार्थी" पुरुष सब (हेव और उपादेय) को जानकर आचरण करे । 1 ७०. अज्ञानी मनुष्य धन", पशु, और ज्ञातिजनों को शरण मानता है । वह मानता है कि ये मेरे हैं और मैं इनका हूं । पर ये धन आदि त्राण और शरण नहीं होते । ७१. अध्यामिक (असातावेदनीयके उदय से होने वाले ) दुःख को ( अकेला ही भोगता है ।) अथवा औपक्रमिक ( किसी निमित्त से होने वाली ) मृत्यु के आने पर अकेला ही जाता-आता हैयह जानकर विद्वान् पुरुष किसी को शरण नहीं मानता। ७२. सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों से विभक्त हैं ।" वे अव्यक्त दुःख से दुःखी, भयाकुल, (तपश्चरण) में आलसी जन्म जरा और मरण से उसीडित होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं । 2 १०१ www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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