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सूयगडो १
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अध्ययन १ टिप्पण ११४-११०
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं - गृहस्थ पक्ष और प्रव्रज्या पक्ष । वह व्यक्ति वेश की दृष्टि से संयमी और आचरण में असंयमी होता है, इसलिए वह गृहस्थ और साधु —दोनों पक्षों का सेवन करता है ।'
श्लोक ६१ :
११४. कर्मबन्ध के प्रकारों को ( विससि)
चूर्णिकार का कथन है कि कर्म-बंध विषम होता है। उसे तोड़ना सरल नहीं होता। आठ कर्मों में प्रत्येक कर्म अनेक प्रकार का है और उसका बंध अनेक कारणों से होता है। प्रत्येक कर्म की अनेक प्रकृतियां हैं, अतः कर्म-बंधन से मुक्त होना विषम कार्य है।" वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैंसन कर्मबंध अथवा चतुर्गतिक संसार'
११५. नहीं जानते (अकोदिया)
जो मनुष्य प्रत्युत्पन्न में आसक्त होते हैं और भविष्य में होने वाले दोषों को नहीं जानते वे अकोविद होते हैं । वैसे व्यक्ति दुःख को प्राप्त होते हैं ।
११६. विशालकाय मत्स्य (मच्छा बेसालिया)
पूर्णिकार ने बसालिय' के तीन अर्थ किए हैं'
(१) विशाल का अर्थ है - समुद्र, उसमें होने वाले मत्स्य ।
(२) विशालकाय मत्स्य ।
(३) 'विशाल' नामक विशिष्ट मत्स्य जाति में उत्पन्न मत्स्य ।
वृतिकार ने भी ये ही तीन अर्थ किये हैं।'
ज्वार के साथ नदी के मुहाने पर आते हैं (उदगस्सऽभियाग मे )
चूर्णिकार ने इसका अर्थ - पानी का समुद्र से बाहर फेंका जाना किया है। मतांतर में इसका अर्थ ज्वार का आना और जाना भी किया है।"
११७. कम हो जाता है ( पभावेणं)
अल्पभाव का अर्थ है-थोड़ा ।'
वृत्तिकार ने इसको 'प्रभाव' शब्द मानकर व्याख्या की है। उनका कहना है कि ज्वार के पानी के प्रभाव से वे विशालकाय मत्स्य नदी के मुहानों पर आ जाते हैं ।'
वृत्तिकार का यह अर्थ उचित नहीं लगता, क्योंकि यह 'उदगस्सऽभियागमे' में आ गया है । अतः यहां 'अल्पभाव' वाला अर्थ ही उचित है ।
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दव्वतो लिंग भावतो असंजतो। एवं ते
:
१. चूर्ण, पृष्ठ ४० दुक्खं णाम पक्षौ द्वौ सेवते, तद्यथा - गृहित्वं प्रव्रज्यां च । प्रव्रजिता अपि भूत्वा आधाकर्मादिभोजने गृहस्था एव सम्पद्यन्ते ।
२. वही, पृष्ठ ४० : विसमो णाम बंध मोक्खो, कम्मबंधो वि विसमो, जतो एक्केक्कं कम्मणे गप्पगारं अगेह च पगारेहिं वज्झते......
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३.४२
अकारकर्मबन्धो भकोटिभिरपि दुर्गेश चतुर्गतिसंसारो या ।
"
४. णि, पृष्ठ ४० तेन प्रत्युत्पन्नाः अनागतदोष (पादन] आपकोदिभिः कर्मबद्धाः संसारे दुःखमाप्नुवन्ति ।
५. वही, पृ० ४० : विशाल समुद्रः विशाले भवाः वैशालिकाः, बृहत्प्रमाणा: अथवा विशालकाः वैशालिका: ।
६. वृत्ति, पत्र ४२ ।
७. चूर्णि, पृ० ४० : उदगस्य अभ्यागमो नाम समुद्रान्निस्सरणम् केचित्तु पुनः प्रवेशः
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८. चूर्णि पृ० ४० : अप्पभावो णाम उदगस्स अल्पभावः ।
६. वृत्ति, पत्र ४२ :
उदकस्स प्रभावेन नदीमुखमागताः ।
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