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सूयगडो १
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अध्ययन १०: टिप्पण ४-८ ४. अमूच्छित (अपडिण्णे)
चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- अमूच्छित, अद्विष्ट ।' वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-इहलौकिक या पारलौकिक आकांक्षा से शून्य । ५. (हिंसा आदि) आस्रवों से मुक्त (अणिदाणभूते)
चूणि में इसके तीन अर्थ किए हैं१. अनाश्रवभूत । २. अबंधनभूत । ३. दुःख का अहेतुभूत।
प्रस्तुत श्लोक का चौथा चरण है-अणिदाणभूते सुपरिव्वएज्जा।' इसका पाठान्तर है-अणिदाणभूतेसु परिव्वएज्जा।' 'सु' जो अगले शब्द से संबंधित था वह पूर्व शब्द से जुड़ जाता है और इस स्थिति में उसका अर्थ ही बदल जाता है। 'निदा' धातु बंधन के अर्थ में है । ज्ञान और व्रत अनिदानभूत-अबंधनभूत होते हैं। मुनि उनमें (ज्ञान और व्रत में) परिव्रजन करे।'
निदान, हेतु, और निमित्त-ये तीनों एकार्थक हैं।' वृत्तिकार ने अनिदानभूत का एक अर्थ अनारंभ भी किया है।'
श्लोक २: ६. ऊंची, नीची और तिरछी विशाओं में (उड्ढं अहे यं तिरियं दिसासु)
इसका सामान्य अर्थ है-ऊर्ध्व दिशा, अधो दिशा और तिर्यक् दिशा ।
चूर्णिकार ने इसका अर्थ शरीर-सापेक्ष किया है-शिर से ऊपर का भाग ऊर्ध्व दिशा, पैरों के तले का भाग अधो दिशा और बीच का भाग तिर्यग् दिशा। ७. हाथ और पैर का संयम करे (हत्थेहि पादेहि य संजमित्ता)
इसका अर्थ है-हाथ और पैर का संयम कर ।
वत्तिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ है-प्राणियों को हाथ-पैरों से बांधकर अथवा दूसरे उपायों से उनकी कदर्थना कर दुःखी न करे ।'
श्लोक ३:
८. जिसका धर्म स्वाख्यात है (सुयक्खायधम्मे)
स्थानांग (३३५०७) के अनुसार सु-अधीत, सु-ध्यात, और सु-तपस्थित धर्म स्वाख्यात कहलाता है। जब धर्म सु-अधीत १. चूर्णि, पृ० १८५ : अप्रतिज्ञः इह-परलोकेषु कामेषु अप्रतिज्ञः अमूच्छित इत्यर्थः, अद्विष्टो वा । २. वृत्ति, पत्र १८६ : न विद्यते ऐहिकामुहिमकरूपा प्रतिज्ञा आकाङ्क्षातपोऽनुष्ठानं कुर्वतो यस्यासावप्रतिज्ञः । ३. चूणि, पृ० १८५ : न निदानभूतः अनिदानभूतो नाम अनाश्रवभूतः,........ अधवा अनिदानभूतानीति 'निदा बन्धने अबन्धभूना
नीति अनिदानतुल्यानीति ज्ञानादीनि व्रतानि वा परिव्वएज्जा, अधवा" न कस्यचिदपि दुःखनिदानभूतः । ४. चूणि, पृ० १८५ । निदानं हेतुनिनित्तमित्यनर्थान्तरम् । ५. वृति, पत्र १८६ : न विद्यते निदानमारम्भरूपं..... यस्यासावनिदानः । ६. चूणि, पृ० १८५ । तत्रोवमिति यद् ऊध्वं शिरसः, अध इति अध: पादतलाभ्याम्, शेषं तिर्यक् । ७. वृत्ति, पत्र १८६ : प्राणिनो हस्तपादाभ्यां 'संयम्य' बवा उपलक्षणार्थत्वादस्यान्यथा वा कदर्थयित्वा यत्तेषां दुःखोत्पादनं तन्न
कुर्यात् ।
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