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टिप्पण : अध्ययन १०
श्लोक १: १. मतिमान् (भगवान् महावीर) ने (मइम)
चूणि और वृत्ति में इसका अर्थ केवलज्ञानी किया है । वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा महावीर का ग्रहण किया है।' २. अनुचिन्तन (अणुवीइ)
अनुचिन्तन कर अर्थात् भगवान महावीर ने ग्राहकों को ध्यान में रखकर, उनकी ग्रहण-योग्यता के अनुसार धर्म का आख्यान किया। सामने वाला व्यक्ति कौन है ? उसका उपास्य कौन है ? वह किस दर्शन का अनुयायी है ? आदि-आदि प्रश्नों का चिन्तन कर भगवान् ने उपदेश दिया।
चूर्णिकार के अनुसार धर्म कहने की पद्धत्ति यह है-निपुण श्रोता के समक्ष सूक्ष्म अर्थ का प्रतिपादन और स्थूल बुद्धि वाले श्रोता के समक्ष स्थूल अर्थ का प्रतिपादन किया जाए । सुनने वाले धर्म को सुनकर यह चिंतन करें कि उन्हें ही लक्ष्य कर यह उपदेश दिया जा रहा है । तिर्यञ्च भी यह सोचे कि भगवान् हमारे लिए कह रहे हैं।' ३. ऋजु समाधि-धर्म का (अंजु समाहि)
यह समाधि का विशेषण है । भगवान् ने ऋजु समाधि का प्रतिपादन किया । ऋजु का अर्थ है-अवक्रता, सरलता, कथनी और करना की समानता । इस प्रसंग में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने बौद्धों की समाधि का उल्लेख किया है और बताया है कि वह ऋजु नहीं है । वे वनस्पति को सचेतन मानते हैं । उसका स्वयं छेदन नहीं करते किन्तु दूसरों से करवाते हैं। वे स्वयं पैसा नहीं छूते किन्तु क्रय-विक्रय करते हैं । यह समाधि की ऋजुता नहीं है।'
समाधि शब्द की व्याख्या के लिए देखें-इसी अध्ययन का आमुख । १. (क) चूणि, पृ० १८५ : मतिमानिति केवलज्ञानी। (ख) वृत्ति, पत्र १५८ : मतिमान् मननं मतिः-समस्तपदार्थपरिज्ञानं तद्विद्यते यस्यासौ मतिमान् केवलज्ञानीत्यर्थः, तत्रासाधारण
विशेषणोपादानात्तीर्थकृद् गृह्यते, असावपि प्रत्यासत्तेर्वीरवर्धमानस्वामी गृह्यते। २. वृत्ति, पत्र १८८ : 'अनुविचिन्त्य' केवलज्ञानेन ज्ञात्वा प्रज्ञापनायोग्यान् पदार्थानाधित्य धर्म भाषते, यदि वा-प्राहकमनुविचिन्त्य
कस्पार्थस्यायं ग्रहणसमर्थः ? तथा कोऽयं पुरुषः ?, कञ्च नतः ?, किं वा दर्शनमापन्नः ?, इत्येवं पर्यालोच्य, धर्मशुश्रूषवो वा मन्यन्ते - यथा प्रत्येक मस्मदभिप्रायमनुविचिन्त्य भगवान् धर्म भाषते, युगपत्सर्वेषां स्वभावापरि
णत्या संशयापगमादिति। ३. चूणि, पृ० १८५ : अणुवीयि ति अनुविचिन्त्य केवलज्ञानेनैव, अथवा अनुविचिन्त्य ग्राहकं ब्रवीति । जधा"णिउणे णिउणं अत्थं थूलत्थं थूलबुद्धिणो कधए।'
(कल्पभाष्य गा० २३०) सुणेलूगा विचितेंति -- मम भावमनुविचिन्त्य कथयति, तिरिया अपि विचितयंति---अम्हं भगवान् कथयति । ४. (क) चूणि, पृष्ठ १८४ :अंजुमिति उज्जुगं, न यया शाक्याः, वृक्ष स्वयं न छिन्दन्ति, 'भिन्नं जानीहि' तं छिन्दानं ब्रवते, तथा कार्षा
पणं न स्पृशन्ति क्रय-विक्रयं तु कुर्वते इत्येवमादिभिः अनृजुः । (ख) वृत्ति, पत्र १८८ : 'ऋजुम'अवकं ययावस्थितवस्तुस्वरूपनिरूपणतो, न यथा शाक्याः सर्व क्षणिकमभ्युपगम्य कृतनाशाकृताभ्यागम
दोषभयात् सन्तानाभ्युपगमं कृतबन्तः तथा बनस्पतिमचेतनत्वेनाभ्युपगम्य स्वयं न छिन्दन्ति तच्छेदनादावुपदेशं तु वदति तथा कार्षापणादिकं हिरण्यं स्वतो न स्पृशन्ति अपरेण तु तत्परिग्रहतः क्रयविक्रय कारयन्ति ।
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