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अ०१: समय : श्लो० ५६-६२
सूयगडो १ ५६. मणसा जे पउस्संति
चित्तं तेसि ण विज्जइ। अणवज्जं अतहं तेसि ण ते संवडचारिणो।२६।
मनसा ये प्रदूष्यन्ति, चित्तं तेषां न विद्यते । अनवद्यं अतथ्यं तेषां, न ते संवतचारिणः ।।
५६. जो मन से प्रद्वेष करते हैं-निपुण होते हैं उनके
कुशल-चित्त नहीं होता।८ (केवल काय-व्यापार से) कर्मोपचय नहीं होता-यह उनका सिद्धान्त तथ्यपूर्ण नहीं है। उक्त सिद्धांत का प्रतिपादन करने वाले संवृतचारी नहीं होते-कर्म-बंध के हेतुओं में प्रवृत्त रहते हैं।
५७. इन दृष्टियों को स्वीकार कर वे वादी शारीरिक
सुख में आसक्त हो जाते हैं। वे अपने मत को शरण मानते हुए सामान्य व्यक्ति की भांति पाप का सेवन करते हैं।
५७. इच्चेयाहिं दिट्ठीहि
सायागारवणिस्सिया । सरणं ति मण्णमाणा
सेवंती पावगं जणा।३०) ५८. जहा आसाविणि णावं
जाइअंधो दुरूहिया । इच्छई पारमागतं
अंतराले विसीयई।३१॥ ५६. एवं तु समणा एगे
मिच्छदिदी अणारिया। संसारपारकंखी ते संसारं अणुपरियटॅति ।३२।
-त्ति बेमि ॥
इत्येताभिः दृष्टिभिः, सातागौरवनिश्रिताः । शरणं इति मन्यमानाः, सेवन्ते पापकं जनाः ।। यथा आस्राविणीं नावं, जात्यन्धः आरुह्य । इच्छति पारमागन्तुं, अन्तराले विषीदति ।।
५८. जैसे जन्मान्ध मनुष्य सच्छिद्र नौका में बैठकर
समुद्र का पार पाना चाहता है, (किन्तु उसका पार नहीं पाता), वह बीच में ही डूब जाता है ।
एवं तु श्रमणा: एके, ५६. इसी प्रकार कुछ मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संसार मिथ्यादृष्टयः अनार्याः । का पार पाना चाहते हैं, (किन्तु उसका पार नहीं संसारपारकांक्षिणस्ते,
पाते), वे बार-बार संसार में भ्रमण करते हैं। संसार अनुपर्यटन्ति ॥ - इति ब्रवीमि॥
-ऐसा मैं कहता हूं। तइनो उद्देसो : तीसरा उद्देशक
६०. किंचि वि पूइकडं
सड्डी आगंतु ईहियं । सहस्संतरियं भुजे दुपक्खं चेव सेवई ।।
यत् किञ्चिदपि पूतिकृतं, ६०. श्रद्धालु गृहस्थ" ने आगन्तुक भिक्षुओं के लिए कुछ श्रद्धिना आगंतुकान् ईहितम् । भोजन निष्पादित किया। उस (आधाकर्म) भोजन सहस्रान्तरितं भुजीत, से दूसरा भोजन मिश्रित हो गया। वह पूतिकर्म१५ द्विपक्षं चैव सेवते ॥ (आधाकर्म से मिश्रित) भोजन यदि भिक्षु हजार
घरों के अंतरित हो जाने पर भी लेता है, खाता है, फिर भी वह द्विपक्ष का सेवन करता है-१३ प्रव्रजित होने पर भी भोजन के निमित्त गृहस्थ जैसा आचरण करता है।
तमेव अविजानन्तः, विषमे अकोविदाः । मत्स्याः वैशालिकाश्चैव, उदकस्याभ्यागमे
६१. वे पूतिकर्म के सेवन से उत्पन्न दोष को नहीं जानते।
वे कर्मबंध के प्रकारों को भी नहीं जानते । "जिस प्रकार समुद्र में रहने वाले विशालकाय मत्स्य" ज्वार के साथ नदी के मुहाने पर आते हैं।
६१. तमेव अवियाणंता विसमंसि अकोविया । मच्छा वेसालिया चेव
उदगस्सऽभियागमे ।। ६२. उदगस्स प्पभावेणं
सुक्कम्मि घातमेंति उ । ढंकेहि य कंकेहि य आमिसत्थेहि ते दुही ।३।
उदकस्याल्पभावेन, शुष्के घातं यन्ति तु । ध्वांक्षश्च कंकैश्च, आमिषाथिभिस्ते दुःखिनः ।।
६२. (ज्वार के लौट जाने पर) पानी कम हो जाता है।
और नदी की बालू सूख जाती है तब मांसा १९ ढंक और कंक पक्षियों के द्वारा नोचे जाने पर वे मत्स्य दुःख का अनुभव करते हुए मृत्यु को प्राप्त होते हैं । १२१
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