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सूगडो १
१४६. आहार में अनासक्त (अगिडे)
प्रस्तुत चरण में प्रयुक्त दो शब्द 'अ' और 'विप्रमुक्त' मुनि की एपना से संबंधित है एषणा के तीन प्रकार हैंगवेषणा, ग्रहण - एषणा, और ग्रासपणा 'अगृद्ध' शब्द के द्वारा ग्रास एषणा की सूचना दी गई है । 'विप्रमुक्त' शब्द से गवेषणा और ग्रहण एषणा के ४२ दोषों का सूचन होता है । यह चूर्णिकार की व्याख्या है ।'
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वृत्तिकार की व्याख्या इससे भिन्न है वे पूर्व चरण में प्रयुक्त 'कडे' शब्द से सोलह उद्गम दोषों का निवारण, 'दत्त' शब्द से उत्पादन के सोलह दोषों का निवारण, 'एषणा' शब्द से दस उषणा के दोषों का निवारण और 'अगृद्ध' तथा 'विप्रमुक्त' शब्द से प्रासंषणा के पांच दोषों का निवारण मानते हैं। इस प्रकार यह पूरा श्लोक भोजन से संबंधित ४२ + ५ दोषों के निवारण का द्योतक है।"
अध्ययन ५ ।
विशेष विवरण के लिए देखें- दसवेआलियं, १४७. अवमान संखड़ी (विशेष प्रकार का भोज)
(ओमाणं)
यह शब्द विशेष जीमनवार का द्योतक है। इसका अर्थ है - ऐसा भोज जिसमें निमंत्रित व्यक्तियों की संख्या नियत हो । मुनि यदि वहां जाता है तो भोज्य-सामग्री की न्यूनता हो सकती है अतः निमंत्रित व्यक्तियों के व्यापात होता है। इसलिए इस प्रकार के भोज में जाने का वर्जन किया गया है ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। उनके अनुसार इसका अर्थ है-मुनि अपने तपोमद, ज्ञानमद आदि का प्रदर्शन कर दूसरे की अवमानना न करे ।' यह अर्थ प्रसंग से दूर प्रतीत होता है ।
देखें - दसवे आलियं, चूलिका २/६
श्लोक ८०
अध्ययन १ : टिप्पण १४६ - १४८
१४८. लोकवाद को (लोगवायं )
प्रस्तुत श्लोक में सूत्रकार ने 'लोकवाद' को सुनने और जानने का निर्देश दिया है। लोकवाद के दो अर्थ है—'
१. अन्यतीथिकों तथा पौराणिक लोगों के 'लोक' संबंधी विचार ।
२. लोक मान्यता - अन्यतीथिकों की धार्मिक मान्यता ।
लोक शब्द के तीन अर्थ किए जा सकते हैं—जगत्, पाषण्ड और गृहस्थ यहां इसका प्रथम अर्थ प्रासंगिक प्रतीत होता है । चूर्णिकार ने इसके पाषण्ड और गृहस्थ-ये दो अर्थ मान्य किए हैं । वृत्तिकार ने इसके पाषण्ड और पौराणिक ये दो अर्थ बतलाए हैं। चूर्णिकार ने लौकिकमत को कुछ उदाहरणों द्वारा समझाया है— सन्तानहीन का लोक नहीं होता । गाय को मारने वाले का लोक १. चूर्ण, पृ० ४६ : बायालीस दोसविप्यमुक्कं एसणं २. पत्र ५०
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चरेदिति गवेसणा गहणेसणा य गहिताओ । अगिद्धे त्ति घासेसणा ।
परिहारः सूचितदतमिति अनेन षोडसोत्पादनदोषाः परिग्रहीता इष्टव्याः, - विप्रमुक्तः, अनेनापि च प्रासेषणादोषाः पञ्च निरस्ता अवसेयाः । परावमवशित्वम् ।
पाखण्डिनां पौराणिकानां वा वादो लोकवादः ।
अगृद्ध' ३. वही पत्र ५० परेवायमानं ४. ( क ) वही पत्र ५० : लोकानां
:
(ख) चूर्णि पृ० ४६ ।
५. चूर्णि, पृ० ४६ : लोका नाम पाषण्डा गृहिणश्च ।
६. वृत्ति, पत्र ५० : लोकानां पाखण्डिनां पौराणिकानां वा ।
७. चूर्णि पृ० ४६ : लोकवादस्तावत् अनपत्यस्य लोका न सन्ति गावान्ता: नरका तथा गोभिर्हतस्य गोधनस्य नास्ति लोकः । तथा
'जेसि 'सुणया जक्खा, विप्पा देवा पितामहा काया ।
ते लोग दुख मोनला विबोधितुं ।'
तथा पुरुष: पुरुष एव, स्त्री स्त्रीत्येव । तथा पाषण्डलोकस्यापि पृथक् तयोरिव प्रसृताः केषाञ्चित् सर्वगतः असर्वगतः नित्योऽनित्यः अस्ति नास्ति चारमा, तवा केचित् सुखेन धर्म
केचिद्दुःखेन केचि ज्ञानेन केचिदाभ्युदयिकधर्मपरा नैव
मोक्षमिच्छन्ति ।
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