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________________ ७. सूयगडा १ अध्ययन १ टिप्पण: १४६-१५० नहीं होता। इस मत के अनुसार कुत्तों को यक्ष, ब्राह्मणों को देव और कौओं को पितामह माना जाता है । यह भी लौकिक मान्यता रही है कि पुरुष पुरुष ही रहता है और स्त्री स्त्री ही रहती है । पाषण्डवाद के उदाहरण ये हैं-कुछ दार्शनिक आत्मा को सर्वगत मानते हैं और कुछ असर्वगत मानते हैं। कुछ उसे नित्य मानते हैं और कुछ अनित्य । कुछ उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं और कुछ उसके नास्तित्व का प्रतिपादन करते हैं। मोक्ष के बारे में चार मान्यताएं हैं १. सुखवादी-सुख से मोक्ष प्राप्त होना। २. दुःखवादी-दुःख से मोक्ष प्राप्त होना। ३. ज्ञानवादी-ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होना। ४. आभ्युदयिक धर्मवादी-मोक्ष को अस्वीकार करते हैं । १४६. जो दूसरे की कही हुई बात का अनुगमन मात्र है (अण्णवृत्त-तयाणुगं) चणिकार ने बताया है कि अन्यतीथिकों के शास्त्र एक-दूसरे के वचन को प्रमाण मानते हैं। व्यास ऋषि भी दूसरे के वचन को प्रमाण मानते हए लिखते हैं--'अनुकप' नामक ऋषि ने इस प्रकार साक्षात् किया, देखा तथा अमुक ऋषि ने ऐसा देखा आदिआदि । वे दूसरों के वचनों का अतिवर्त नहीं करते। वृत्तिकार का अर्थ सर्वथा भिन्न है । उनके अनुसार इसका अर्थ है-अविवेकी व्यक्तियों द्वारा कथित का अनुगमन करने वाला सिद्धान्त । विवरीयपण्णसंभूयं........... विवरीयपण्णसंभूयं, अण्णवुत्त-तयाणुगं'-ये दोनों चरण लोकवाद के विशेषण हैं। सूत्रकार का प्रतिपाद्य यह है कि लोकवाद विपरीत प्रज्ञा से उत्पन्न है तथा वचन प्रामाण्य पर आधारित है। इसलिए यह आस्थाबन्ध के योग्य नहीं है। प्रस्तूत श्लोक में सत्य की खोज का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र उद्घाटित हुआ है । वह यह है कि जो सत्य वचन के प्रामाण्य पर आधारित होता है, उसमें विरोधी प्रज्ञाओं के दर्शन होते हैं । एक दार्शनिक एक बात कहता है तो दूसरा दूसरी बात कहता है। परोक्ष ज्ञान में इन समस्याओं को कभी नहीं सुलझाया जा सकता। अनुभव ज्ञान अपनी साधना से उपलब्ध होता है। उसमें विरोधी प्रज्ञा उपस्थित नहीं होती। सम्यदर्शी या प्रत्यक्षदर्शी जितने होते हैं उन सबका अनुभव एक ही जैसा होता है। सूत्रकार स्वयं परोक्षदशियों द्वारा प्रतिपादित कुछ विरोधी वादों को उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते हैं । श्लोक ८१-८२ : १५०. श्लोक ८१-८२ प्राचीन काल में लोक सान्त है या अनन्त, यह बहुचचित प्रश्न था । पिंगलक निर्ग्रन्थ ने स्कन्धक से यह पूछा-मागध ! लोक सान्त है या अनन्त ? स्कन्धक इसका समाधान नहीं दे सका। वह भगवान् महावीर के पास पहुंचा । उसने उस प्रश्न का समाधान चाहा । भगवान् महावीर ने प्रश्न के उत्तर में कहा- स्कन्धक ! मैंने लोक को चार दृष्टियों से प्रज्ञप्त किया है। द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से लोक सान्त है, काल और भाव की दृष्टि से वह अनन्त है । द्रव्य की दृष्टि से लोक एक है, इसलिए वह सान्त है और क्षेत्र की दृष्टि से लोक सपरिमाण है, इसलिए वह सान्त है।' १. चूणि, पृष्ठ ४६ : अन्योन्यस्य ......... तत् कथ्यं (कथम् ?), व्यासोऽपि हि इतिहास्यमानयनम (? यन्न)न्यस्य वचः प्रमाणी करोति, तद्यथा-अनुकपेन ऋषिणा एवं दृष्टम्, अन्येनैवम् इति, नान्योन्यस्य वचनमतिवर्तते, प्रायेण हि वार्तानुवात्तिको लोकः । २. वृत्ति, पत्र ५० : अन्यैः-अविवेकि भिर्यदुक्तं तदनुगम् । ३. अंगसुत्ताणि (भाग २), भगवई २१४५ : एवं खलु मए खंदया ! चउविहे लोए पण्णत्ते, तं जहा-दन्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं एगे लोए सअंते । खेत्तओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खं भेणं, असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडोओ परिक्खेवेणं पण्णत्ते, अस्थि पुण वे अंते । ...... .... सेत्तं खंदगा! दम्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सअंते, कालओ लोए अणते, भावओ लोए अणंते । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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