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सूयगडो १
अध्ययन १ : टिप्पण १५० भगवान् महावीर ने एक दूसरे प्रसंग में कहा—'जमाली! लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। इस प्रसंग में द्रव्याथिक और पर्यायाथिक-इन दो नयो की दृष्टि से यह निरूपण किया गया है। प्रस्तुत दोनों श्लोकों की व्याख्या द्रव्य, क्षेत्र आदि चार दृष्टियों तथा द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नयों की दृष्टि से की जा सकती है। केवल अनन्तवाली दृष्टि के सामने यह दृष्टि प्रस्तुत की गई कि लोक अनन्त ही नहीं, सान्त भी है। अपरिमाणवाली दृष्टि के सामने सपरिमाण दृष्टि प्रस्तुत की गई है। उसका हार्द यह है कि कोई भी अवस्था असीम नहीं है। प्रत्येक अवस्था ससीम है । इस लोकवाद का जीववाद से संबंध प्रतीत होता है। अगले श्लोक के संदर्भ में यहां 'लोक' का अर्थ जीव या आत्मा अधिक संगत लगता है। हिंसा और अहिंसा की चर्चा में आत्मा नित्यत्व का दृष्टिकोण उपस्थित होता था। कहा जाता था-आत्मा शाश्वत है फिर हिंसा किसकी होगी? दूसरी बात आत्मा सर्वव्यापी है, फिर हिंसा किसकी होगी?
इस दृष्टिकोण के उत्तर में सूत्रकार ने सान्त और परिमित का दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। चूणिकार ने अनन्तवाद का ताप यह समझाया है कि बस बस ही रहता है और स्थावर स्थावर ही। बस कभी स्थावर नहीं होता और स्थावर कभी त्रस नहीं होता। इस प्रकार पुरुष सदा पुरुष, स्त्री सदा स्त्री और नपुंसक सदा नपुंसक ही रहता है। प्रत्येक जन्म मे उन्हें यही अवस्था उपलब्ध होती है । पुरुष मृत्यु के पश्चात् स्त्री नहीं होता और स्त्री मृत्यु के पश्चात् कभी पुरुष नहीं होती। उक्त शाश्वतवाद का प्रतिवाद अगले श्लोक में किया गया है।
चूणि और वृत्ति में प्रस्तुत दोनों श्लोकों की व्याख्या भिन्न प्रकार से की गई है।
चर्चाणकार के अनसार सांख्य मतावलंबी लोक को अनन्त और नित्य मानते हैं। क्योकि उनके द्वारा सम्मत 'पष सर्वव्यापी और कूटस्थ है, अपरिणमनशील है।
उन्होंने वैशेषिकों की मान्यता का उल्लेख करते हुए कहा है कि वे परमाणु को शाश्वत मानते हुए भी क्रियाशील मानना वे न कभी नष्ट होते हैं और न कभी उत्पन्न ।
अंतवं णितिए लोए-यह पौराणिकों की मान्यता है। पौराणिक मानते हैं कि क्षेत्र की दृष्टि से लोक सात द्वीप और सात समुद्र परिमाण वाला है । वह काल की दृष्टि से नित्य है । यह चूणिकार का उल्लेख है।'
सांख्य सत्कार्यवादी हैं। वे पदार्थ को कूटस्थ-नित्य मानते हैं। वे मानते हैं कि कारण रूप में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व विद्यमान है। कोई भी नया पदार्थ न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। केवल उनका आविर्भाव-तिरोभाव होता है।
वृत्तिकार ने अनन्त के दो अर्थ किए हैं। अनन्त वह होता है जिसका निरन्वय नाश नहीं होता । जिस भव में जो जिस रूप में रहता है, अगले भव में भी वह उसी रूप में जन्म लेता है । पुरुष पुरुष ही रहता है और स्त्री स्त्री ही।
अनन्त का दूसरा अर्थ है-अपरिमित, अवधि से शून्य ।
उन्होंने किसी भी मत का उल्लेख न करते हुए लिखा है-लोक शाश्वत है, क्योंकि यणुक आदि कार्यद्रव्य की अपेक्षा से वह अशाश्वत होते हुए भी उसका जो मूल कारण परमाणु है, उसका कभी परित्याग नहीं होता तथा दिग्, आत्मा और आकाश आदि का कभी विनाश नहीं होता। यह सांख्यमत का हा उल्लेख है। १. अंगसुत्ताणि (भाग २), भगवई ६।२३३ : ............ सासए लोए जमाली। ............ असासए लोए जमाली। २.णि, पृ० ४७: साङ्ख्याः तेषां सर्वगतः क्षेत्रज्ञः कूटस्थः ग्रहणम् । ३. वही, पृ० ४७ : वैशेषिकाणां परमाणवः शाश्वतत्वेऽपि सति क्रियावन्तः ....
..... न तेषां कश्चिद् भावो विनश्यति उत्पद्यते वा। ४. वही, पृ० ४७ : यथा पौराणिकानां सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः क्षेत्रलोकपरिमाणम्, कालतस्तु नित्यः । ५. सांख्यकारिका श्लोक ६ । ६. वृत्ति, पत्र ५०: नास्यान्तोऽस्तीत्यनन्तः, न निरन्वयनाशेन नश्यतीत्युक्तं भवतीति, तथाहि-यो यादृगिहभवे स तागेव परभवे. ___ऽप्युत्पद्यते, पुरुषः पुरुष एवाङ्गना अङ्गनवेत्यादि । ७. वही, पत्र ५० : यदिवा अनन्तः अपरिमितो निरवधिक इति यावत् । ८. वही, पत्र ५० : तथा शश्वद्भवतीति शाश्वतो दयणुकादिकार्य द्रव्यापेक्षयाऽशश्वद्भवन्नपि न कारणद्रव्यं परमाणत्वं परित्यजतीति
तथा न विनश्यतीति दिगात्माकाशाद्यपेक्षया ।
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