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सूयगडौ १
मध्ययन १: टिप्पण १४२-१४५ उच्च मानी जाने वाली जातियों में जन्म लेने वाला व्यक्ति उत्कर्ष का और तुच्छ मानी जाने वाली जातियों में जन्म लेने वाला व्यक्ति सीनता का अनभव करता था। भगवान् महावीर ने सामायिक धर्म का प्रतिपादन कर दोनों प्रकार की मनोवत्ति वाले भिक्षओं के सामने यह शिक्षापद प्रस्तुत किया कि आत्म-विकास का मार्ग उत्कर्ष और अपकर्ष-दोनों से परे है, इसलिए सामायिक की साधना करने वाले व्यक्ति को मध्यम मार्ग से चलना चाहिए। चूणिकार ने इसी आशय की व्याख्या की है। उन्होंने एक वैकल्पिक अर्थ भी किया है कि राग और द्वेष-दोनों से बचकर मध्य-मार्ग से चलना चाहिए।
प्रस्तुत श्लोक का यह भाव आचारांग के इस सूत्र की सहज ही स्मृति करा देता है-'णो हीणे णो अइरित्त' (आयारो, २/४६)
वृत्तिकार ने 'अप्पलीणे' पाठ मान कर उसका अर्थ-अन्यतीथिक, गृहस्थ या पार्श्वस्थों के साथ परिचय या संश्लेष न करना -किया है।
श्लोक ७८ : १४२. परिग्रही ..... (सपरिग्गहा...)
कुछ धार्मिक पुरुष यह घोषणा करते हैं कि निर्वाण के लिए आरंभ और परिग्रह को छोड़ना कोई तात्त्विक बात नहीं है।' जैन श्रमण का आचार ठीक इससे विपरीत है। उसके लिए अपरिग्रही और अनारंभी (अहिंसक) होना अनिवार्य है। इसलिए ज्ञानी भिक्षु को परिग्रह और आरंभ के आकर्षण से बचकर चलना चाहिए। सहज ही प्रश्न होता है कि अपरिग्रही और अनारंभी मनुष्य शरीर-यापन कैसे कर सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर अगले श्लोक में स्वयं सूत्रकार देते हैं । १४३. ज्ञानी (जाणं)
इसका अर्थ है- ज्ञानवान् ।' वृत्तिकार ने इसके स्थान पर 'ताणं' पाठ मान कर 'शरण' अर्थ किया है।'
श्लोक ७६ : १४४. गृहस्थों द्वारा अपने लिए कृत (कडेसु)
पूर्व श्लोक में कहा गया है कि मुनि अहिंसक और अपरिग्रही होकर जीवन यापन करे। पचन-पाचन आदि हिंसायुक्त क्रियाओं को किए बिना तथा परिग्रह का आदान-प्रदान किए बिना व्यक्ति अपना जीवन कैसे चला सकता है ? भोजन के बिना शरीर नहीं चलता और हिंसा तथा परिग्रह (धन) के बिना भोजन की उत्पत्ति और प्राप्ति नहीं हो सकती। शरीर धर्म का साधन है। अतः इसके निर्वाह के लिए हिंसा और परिग्रह आवश्यक हैं।
इसका समाधान प्रस्तुत श्लोक में इस प्रकार मिलता है-(१) गृहस्थ अपने लिए भोजन पकाए उसकी एषणा या याचना करे। (२) गृहस्थ के द्वारा प्रदत्त भोजन की एषणा करे । (३) प्राप्त भोजन को अनासक्त भाव से खाए। (४) विप्र मुक्त रहे-आहार के प्रति मूर्छा न करे । जहां इष्ट आहार मिले उस कुल या ग्राम से प्रतिबद्ध न बने । (५) भोजन कम हो अर्थात् भोजन लेने पर दूसरों को कठिनाई का अनुभव हो, वैसे भोजन का परिवर्जन करे । १४५. प्रदत्त आहार का भोजन करे (दत्तेसणं चरे)
तुलना-दाणभत्तेसणे रया (दसवे ११४) १. वृत्ति, पत्र ४६ : अप्रलीन: असंबद्धस्तीथिकेषु गृहस्थेषु पार्श्वस्थादिषु वा संश्लेषमकुर्वन् । २. चूणि, पृ० ४७ : यदेषामारम्भ-परिग्रहावाख्यातौ निर्वाणाय अतत्त्वम् । ३. वही, पृ० ४७ : ज्ञानवान् ज्ञानी। ४. वृत्ति, पत्र ५०: त्राणं शरणम् ।
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