SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो१ ES अध्ययन १ : टिप्पण१३६-१४१ ये देव अधम जाति वाले और सेवक स्थानीय होते हैं। इनकी ऋद्धि भी अल्प होती है और भोग-सामग्री भी अल्प होती है । इनका आयुष्य-काल भी कम और शक्ति भी कम होती है।' उत्तराध्ययन सूत्र में भी आसुरी भावना और किल्विषिक भावना का पृथक-पृथक उल्लेख हुआ है। ये दो भिन्न स्थान हैं, अतः चूर्णिकार की व्याख्या संगत प्रतीत होती है। श्लोक ७६ : १३९. वे प्रावादुक (एते) चूर्णिकार ने इस शब्द से कुतीथिक और लिंगस्थ-इन दोनों का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने पंचभूतवादी, एकात्मवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी, सृष्टिकर्तृत्ववादी तथा गोशालक के मत को मानने वाले राशिकवादियों का ग्रहण किया है। १४०. गृहस्थोचित कार्यों का उपदेश देते हैं (सितकिच्चोवएसगा) 'सित' शब्द के दो अर्थ हैं-बद्ध और गृहस्थ ।' इस पद का अर्थ है-गृहस्थोचित कार्यों का उपदेश देने वाले । वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप देकर भिन्न अर्थ किया है १. सितकृत्योपदेशगा:-गृहस्थों की पचन-पाचन आदि हिंसाकारी प्रवृत्ति करने वाले । २. सितकृत्योपदेशकाः-गृहस्थोचित कार्यों का उपदेश देने वाले । वृत्तिकार ने इसके अर्थ की एक और कल्पना की है। उसके अनुसार 'सिया' को क्रियापद के रूप में प्रयोग मान कर उसका संस्कृत रूप 'स्युः' दिया है । 'कृत्य' का अर्थ गृहस्थ किया है। इस संदर्भ में पूरे पद का अर्थ होगा-वे गृहस्थोचित हिंसा का उपदेश देने वाले होते हैं। श्लोक ७७: १४१. वह मुनि अपना उत्कर्ष "यापन करे (अणुक्कसे "जावए) उत्कर्ष का अर्थ है-मद या अहंकार । मद के आठ स्थान हैं-जाति, कुल, रूप, बल आदि । जो इन मद-स्थानों का सेवन नहीं करता वह अनुत्कर्ष होता है । अणवलोणे 'अपनलीन' उत्कर्ष का विरोधी भाव है। उस युग में जातिवाद उच्चता और हीनता का एक मुख्य मानदंड था, इसलिए १. वृत्ति, पत्र ४८ : आसुरा:-असुरस्थानोत्पन्ना नागकुमारादयः तत्रापि न प्रधाना: किं तहि ? किल्बिषिका:' अधमा: प्रेष्यभूता अल्पर्धयोऽल्पभोगा: स्वल्पायुः सामर्थ्याद्य पेताश्च भवन्तीति । २. उत्तरज्झयणाणि, ३६१२६५,२६६ । ३. चूणि, पृ० ४५ : एते....... "कुतित्था लिंगत्था य । ४. वृत्ति, पत्र ४६ : एत इति पञ्चभूतकात्मतज्जीवतच्छरीरादिवादिनः कृतवादिनश्च गोशालकमतानुसारिणस्त्रैराशिकाश्च । ५. चूणि, पृ० ४५ : सिता: बद्धा इत्यर्थ ...... "सिता: गृहस्थाः । ६. वृत्ति, पत्र ४६ : सितकृत्योपदेशगाः कृत्योपदेशका वा । ७. वही, पत्र ४६ : यदिवा-सिया इति आर्षत्वादहुवचनेन व्याख्यायते स्युः भवेयुः कृत्यं कर्तव्यं सावद्यानुष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्या गृहस्थास्तेषामुपदेशः-संरम्भसमारम्भारम्भरूपः स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः । ८. चूणि, पृ० ४५ : अणुक्कसो णाम न जात्यादिभिर्मदस्थानयत्कर्ष गच्छति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy