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सूयगडो १
अध्ययन १: टिप्पण १३६-१३८
श्लोक ७४: १३६. श्लोक ७३-७४
चूणिकार और वृत्तिकार ने सिद्धि का अर्थ निर्वाण किया है। अगले श्लोक (७४) में प्रयुक्त 'सिद्ध' शब्द के संदर्भ में 'सिद्धि' शब्द का अर्थ 'विशेष अनुष्ठान की सिद्धि' प्रतीत होता है । सिद्धि प्राप्त पुरुष ही सिद्ध होता है । सिद्धपुरुष सिद्धि को सामने रखकर ही साधना करता है, यह 'सिद्धिमेव पुरोकाउं' (श्लोक ७४) पद से स्पष्ट है। सिद्ध का अर्थ मुक्त नहीं है, किन्तु सिद्धपुरुष है। चूणिकार ने लिखा है-सिद्धपुरुष शरीरी होकर भी नीरोग होता है। वह वात आदि दोषजनित रोगों तथा आगन्तुक रोगों से पीड़ित नहीं होता और वह इच्छा-मरण से शरीर को छोड़कर निर्वाण में चला जाता है। प्रस्तुत श्लोक (७४) में 'अरोगा य' इस शब्द से सिद्धपुरुष को प्राप्त होने वाली कामसिद्धि की ओर संकेत किया गया है।
तंत्रशास्त्र का अभिमत है कि योगी को जब आठ सिद्धियां प्राप्त होती हैं तब उसे देह सिद्धि की भी उपलब्धि सहज हो जाती है। देहसिद्धि का तात्पर्य यह है कि उसका शरीर आकर्षक, मोहक, रोगों से अनाकान्त और वज्र की तरह दृढ़ बन जाता है। देहसिद्धि के दो प्रकार हैं-सापेक्ष देहसिद्धि और निरपेक्ष देहसिद्धि। सापेक्ष देहसिद्धि असम्यक् होती है और निरपेक्ष देहसिद्धि सम्यक होती है। इनको समझने के लिए गोरखनाथ के जीवन की एक घटना प्रस्तुत की जाती है।
गुरु गोरखनाथ को कायसिद्धि प्राप्त थी। उनका शरीर वज्रमय बन गया था। किसी प्रकार के माघात का उन पर कोई प्रभाव नहीं होता था। एक बार उनके मन में अपनी सिद्धियों का चमत्कार दिखाने की भावना जागी। वे उस समय के महासिद्ध 'अल्लाम प्रभुदेव' के पास आए और बोले-मुझे काय सिद्धि प्राप्त है। आप परीक्षा कर देखें। मेरे शरीर पर तलवार का प्रहार करें। कहीं घाव नहीं होगा। प्रभुदेव ने उस बात को टालना चाहा । गोरखनाथ ने अपना हठ नहीं छोड़ा और प्रभुदेव को परीक्षा करने का बार-बार आग्रह किया । प्रभुदेव ने तलवार से गोरखनाथ के शरीर पर प्रहार किया। एक रोंआ भी नहीं कटा। तलवार का आघात लगते ही ऐसा टंकार हुआ जैसे पर्वत पर वज्र का प्रहार करने से होता है । गोरखनाथ का मन अहं से भर गया। उस अहं को तोड़ने के लिए प्रभुदेव बोले--तुम्हारी कायसिद्धि सम्यक् नहीं हैं । सम्यक् काय सिद्धि वह है जो मृत्यु को पार कर जाए, जिस पर प्रहार करने से कोई शब्द न हो। गोरखनाथ प्रभुदेव की परीक्षा करने के लिए उद्यत हुए। तलवार से उन पर गहरे प्रहार किए। तलवार शून्य आकाश में जैसे चलती रही। न शब्द और न आघात । प्रभुदेव का शरीर आकाश की भांति आघातविहीन और निर्विकार रहा। गोरखनाथ ने प्रभुदेव के रोम-रोम में तलवार चुभाने का प्रयास किया पर व्यर्थ । वह शरीर आकाशमय बन गया था।'
श्लोक ७५:
१३७. कल्प-परिमित काल तक (कप्पकालं)
'कल्प' शब्द दीर्घ काल का सूचक है। वैदिक काल-गणना में इसका परिमाण इस प्रकार मिलता है-ब्रह्मा का एक दिन अथवा हजार युग का काल अथवा ४३२००००००० वर्षों का कालमान। १३८. आसुर और किल्विषिक (आसुरकिब्बिसिय)
चूर्णिकार ने आसुर और किल्विषिक को भिन्न-भिन्न माना है।'
बत्तिकार ने दोनों को एक शब्द मान कर इसका अर्थ-नागकुमार आदि असुर जाति के देवों में किल्विषिक देव के रूप में (उत्पन्न होते हैं) किया है। १. (क) चूणि, पृ० ४४ : सिद्धिरिति निर्वाणम् ।
(ख) वृत्ति, पत्र ४७ : सिद्धिम् अशेषसांसारिकप्रपञ्चरहितस्वभावम् । २. चणि, पृ० ४४ : ते हि रिद्धिमन्तः शरीरिणोऽपि भूत्वा सिद्धा एव भवन्ति नीरोगाश्च । नीरोगा णाम वातादिरोगरागन्तुकैश्च न
पीड्यन्ते, ततः स्वेच्छातः शरीराणि हित्वा निर्वान्ति । ३. तंत्र सिद्धान्त और साधना पृष्ठ १५५-१५८ । ४. चूणि, पृ० ४४ : आसुरेषूपपद्यन्ते किल्विषिकेषु च ।
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