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सूयगडो १
भिन्न नहीं है।'
बौद्ध साहित्य में 'खिड्डापदोसिका' नामक देवों का उल्लेख मिलता है। वहां उनके शाश्वत और अशाश्वत - दोनों स्वरूप प्रतिपादित हैं। यह अभिमत मिध्यादृष्टि स्थानों में उल्लिखित है, किन्तु यह किस सम्प्रदाय का है, इसका स्पष्ट उल्लेख वहां प्राप्त नहीं है।'
१३३. गुरुकुल में (बंभचेरं)
६७
श्लोक ७२ :
जैन आगमों में यह शब्द 'गुरुकुलवास' के लिए प्रयुक्त होता है।'
चूर्णिकार ने इसका अर्थ द्रव्य ब्रह्मचयं किया है ।
जहां चरित्र हम्य नहीं होता वह गुरुकुलवास वास्तविक नहीं होता, इसलिए वह द्रम्य ब्रह्मचर्य कहलाता है। पूर्णिकार ने बताया है कि मुनि ऐसे गुरुकुलवास में न रहे। उसके साथ सम्पर्क भी न रखे।'
श्लोक ७३ :
१३४. सिद्धि (मोक्ष) से पूर्व इस जन्म में भी ( अथोऽवि )
अध्ययन १ टिप्पण १३३-१३५ :
चूर्णिकार ने 'अघोहि' पाठ मानकर उसका अर्थ अवधिज्ञान किया है।"
वृत्तिकार ने अधोऽवि' पाठ का अर्थ 'सिद्धेरारात्' सिद्धि से पहले किया है । '
पाठ-शोधन में प्रयुक्त 'ख' संकेत की प्रति में 'अघोधि' पाठ मिला। हमने पाद टिप्पण में उसे दिया है और टिप्पणी करते हुए लिखा है कि लिपिदोष के कारण 'वि' के स्थान में 'धि' हो गया है । किन्तु 'सिद्धि' और 'सिद्ध' शब्द पर हमने जिस अर्थ पर विचार किया है, उसके अनुसार चूर्णि सम्मत 'अधोहि' या 'अधोधि' पाठ संगत लगता है । अवधिज्ञान सिद्धि का एक अंग है । उसे उपलब्ध कर पुरुष सिद्ध बनता है।
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१३५. सब कामनाएं समर्पित हो जाती हैं (सव्वकामसमप्पिए)
साधक के प्रति सभी कामनाएं समर्पित होती हैं, इसलिए सिद्ध-साधक सर्वकाम समर्पित होता है। कामनाओं की पूर्ति सिद्धि के द्वारा होती है। सिद्धियों के अनेक प्रकार है-अणिमा, महिमा, विमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईहित्य, कामरूपित्व, आदि-आदि।"
१. (क) चूर्णि, पृष्ठ ४३ । तस्य हि स्वशासन पूज्यमानं दृष्ट्वा अन्यशासनान्यपूज्यमानानि (च) क्रीडा भवति, मानसः प्रमोद इत्यर्थः, अपूज्यमाने वा प्रदोषः ततोऽसौ सूक्ष्मे रागे द्वेषे वायुगान्तरात्मा शनैः शनैः निर्मलपटययुपभुज्यमानः कृष्णानि कर्मावित्य स्वगौरवात्तेन रजसाऽवतार्यते ।
(ख) बुति पत्र ४६
२. दीघनिकाय १०३ पृ० ४५,४६ ।
२.१.१४०१... सुयं भवेरं वा ।
४. भूमि पृ० ४३ ते निर्वाणायेति द्रव्यब्रह्मरं न तं बसे ति तं रोएन्जा आवरेना वा न वा तेहि समं वा संग्गिया कुर्यात् तेहिति ।
५. वही, पृ० ४४ : अधोहि नाम अवधिज्ञानम् ।
६. वृत्ति, पत्र ४७ ॥
७, वही, पत्र ४७ ॥
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