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सूयगडो १
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अध्ययन ११ : टिप्पण १६-१६
बह स्वस्थ होती है। उसके व्रण भरते हैं। उसमें आहार की इच्छा होती है, दोहद भी होता है। कुछ वनस्पतियां स्पर्श से संकुचित होती हैं, कुछ रात में सोती हैं और दिन में जागती हैं, कुछ दूसरे के आश्रय से उपसर्पण
करती हैं। १६. जीवों को दुःख अप्रिय है (अकंतदुक्खा)
अकन्त का अर्थ है-अकान्त-अप्रिय, अनिष्ट । शारीरिक और मानसिक दुःख सबको अकान्त है, इसलिए सब प्राणी अहिंस्य हैं ।
अहिंसा का आधार है-जीव । त्रस जीव में गति होती है, इसलिए उसकी पहचान हमारे लिए स्पष्ट है। दूसरे जीवों की पहचान बस में प्राप्त लक्षणों के आधार पर की जाती है। अहिंसा का दूसरा आधार है कि कोई भी जीव दुःख नहीं चाहता।
श्लोक १०:
१७. समता अहिंसा है (अहिंसा समयं)
प्रस्तुत श्लोक १।११८५ में आया हुआ है। इसकी व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार का मतभेद है। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है
अहिंसा ही समता है। जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही दूसरे जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं है । अथवा मुझे पीडित करने से मुझे दुःख होता है वैसे ही दूसरे जीवों को पीडित करने से उन्हें दुःख होता है। इसलिए अहिंसा समता है या समता ही अहिंसा है।
वृत्तिकार ने 'समय' का अर्थ आगम किया है। उनके अनुसार 'अहिंसा-समयं' का अर्थ है--अहिंसा प्रधान आगम अथवा उपदेश । यह अर्थ मूलस्पर्शी नहीं लगता ।'
वस्तुत: प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि पढ़ने का सार है-हिंसा से निवृत्त होना । सबके साथ समान बर्ताव करना यही समता है, यही अहिंसा है।
श्लोक ११:
वति
१८. श्लोक ११:
यह श्लोक १/३/८०, १/८/१६ में आ चुका है। टिप्पण के लिए देखें-१/३/८० ।
श्लोक १२: १६. जितेन्द्रिय पुरुष (पभू)
चूर्णिकार ने प्रभु के तीन अर्थ किए हैं-- १. चूणि, पृ० १९७ : सारीरं माणसं वा सव्वेसि अणिठें अकंतं अपियं दुक्खं, अत इत्यस्मात् कारणाद् नवकेन भेदेन अहिंसणीया
अहिंसकाः। २. चूर्णि, पृ० १९८ : अहिंसा समयं ति, समता 'जध मम ण पियं दुक्खं' गाधा अथवा यथा हिसितस्य दुःखमुत्पद्यते मम, एवमभ्या
ख्यातस्यापि चोरियातो वाऽस्य, दुःखमुत्पद्यते, एवमन्येषामपि इत्यतो अहिंसासमयं चेव । ३. वत्ति, पत्र २०३ : तदेवहिंसाप्रधान: 'समय-आगमः संकेतो बोपदेशरूपः। ४. चूणि, पृ० १९८ : पभवतीति प्रभुः, वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, न वा संयमावरणानां कर्मणां वशे वर्तते । अथवा स्वतन्त्रत्वाद् जीव एवं प्रभुः,
शरीरं हि परतन्त्रम्, मोक्षमार्ग वाऽनुपला (? पाल) यितव्ये प्रभुः ।
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