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सूयगडो १
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प्रध्ययन ११: प्रामुख प्रस्तुत अध्ययन में अड़तीस श्लोक हैं। उनमें मोक्षमार्ग की विशेष जानकारी तथा अहिंसा, सत्य, एषणा आदि के विषय में परिज्ञान दिया गया है।
श्लोक १-६ मोक्षमार्ग का स्वरूप । ७-१२ अहिंसा-विवेक । १३-१५ एषणा-विवेक १६-२१ भाषा-विवेक २२-२४ धर्म द्वीप कैसे ? २५-३१ बौद्धमत की समीक्षा
३२-३८ मार्ग की प्राप्ति का उपाय और चरम फल । कुछ विमर्शनीय स्थल
सातवें श्लोक में स्थावर जीवों का एक विशेषण है 'पुढो सत्ता'। इसका संस्कृत रूप है-'पृथक् सत्त्वाः' और अर्थ है-पृथक्पृथक् आत्मा वाले। इस विशेषण के द्वारा इस सत्य की घोषणा की गई है कि सभी आत्माओं का स्वतंत्र अस्तित्व है, कोई किसी से उत्पन्न नहीं है । यहां सत्व का अर्थ है-अस्तित्व ।
दो श्लोकों (७, ८) में षड्जीवनीकाय का निरूपण है। यह भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इससे पूर्व किसी अन्य दार्शनिक ने इस प्रकार का सिद्धान्त प्रतिपादित किया हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। महान् तार्किक आचार्य सिद्धसेन ने महावीर की सर्वज्ञता को प्रस्थापित करने के लिए 'षड्जीवनिकाय' का हेतु प्रस्तुत किया है । वे कहते हैं-महावीर की सर्वज्ञता को प्रस्थापित करने वाले अनेक तथ्य हैं । उनमें षड्जीवनिकाय की प्ररूपणा महत्त्वपूर्ण है।
छह श्लोकों (१६-२१) में दान के प्रसंग में मुनि का भाषा-विवेक कैसा होना चाहिए, उसका स्पष्ट निर्देश है । इन श्लोकों का तात्पर्य है कि जहां जब दान की प्रवृत्तियां चल रही हों, उन्हें लक्षित कर धर्म या पुण्य होता है या नहीं होता है, इस प्रकार का कोई व्यक्ति प्रश्न करे तब मुनि को मौन रहना चाहिए।
चौबीसवें श्लोक में साधना-क्रम का सुन्दर निरूपण मिलता है। उस साधना के चार सोपान हैं१. आत्मगुप्ति । २. इन्द्रिय और मन का उपशमन । ३. छिन्न-स्रोत अवस्था । ४. निरास्रव अवस्था।
साधक को सबसे पहले आत्मगुप्ति करनी होती है । उसे इन्द्रिय और मन का समाहार करना पड़ता है। गुप्ति का निरन्तर अभ्यास करने से इन्द्रियां और मन दान्त हो जाते हैं । जैसे-जैसे उनकी उपशान्तता बढ़ती है, वैसे-वैसे हिंसा आदि प्रवृत्तियां टूटती जाती हैं । एक क्षण ऐसा आता है कि वे सारे स्रोत छिन्न हो जाते हैं और साधक तब निरास्रव होकर आत्मा के निकट पहुंच जाता है।
सात श्लोकों (२५-३१) में बौद्धदृष्टि की समीक्षा की गई है। अहिंसा धर्म ही शुद्ध धर्म है । बौद्ध भिक्षु हिंसात्मक प्रवृत्तियों का समर्थन करते हैं । वे संघभक्त की बात सोचते रहते हैं । संकल्प-विकल्प के कारण वे असमाहित रहते हैं । वे शुद्ध ध्यान के अधिकारी नहीं होते। वे समाधि की साधना करते हैं, पर आरंभ और परिग्रह में आसक्त होने के कारण समाधि को नहीं पा सकते। वे आत्मा को नहीं जानते, इसलिए समाधिस्थ भी नहीं हो पाते । वे स्वयं शुद्ध मार्ग पर नहीं चलते और दूसरों को भी उन्मार्गगामी बनाते हैं।
छबीसवें श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने बौद्ध परंपरागत कुछेक व्यवहारों का निर्देश किया है। देखें - टिप्पण संख्या ३८ ।
छतीसवें श्लोक के संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या इस निर्वाण-मार्ग का प्रतिपादन वर्धमानस्वामी ने ही किया है अथवा अन्य तीर्थंकरों ने भी इसका प्रतिपादन किया है ? शास्त्रकार इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं
'जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया। संती तेसि पइट्ठाणं, भूयाणं जगई जहा॥'
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