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________________ प्र० १५ : यमकोय : श्लोक १७-२५ १७. कुछ प्रवचनकारों (तीर्थकरों) का यह अभिमत है कि मनुष्य ही दुःखों का अन्त करता है। उनका यह अभिमत है कि यह मनुष्य का शरीर दुर्लभ १८. इस मनुष्य शरीर से च्युत जीव को फिर संबोधि दुर्लभ होती है । जो धर्म के तत्त्व का उपदेश दें वैसी विशुद्ध लेश्या वाली आत्माओं का योग भी" दुर्लभ सूयगडो १ १७. अंतं करेंति दुक्खाणं इहमेगेसि आहितं। आघातं पुण एगेसि दुल्लभेऽयं समुस्सए॥ १८. इतो विद्धंसमाणस्स पुणो संबोहि दुल्लमा। दुल्लभाओ तहच्चाओ जे धम्मठें वियागरे ॥ १६.जे धम्मं सुद्धमक्खंति पडिपुण्णमणेलिसं । अणेलिसस्स जं ठाणं तस्स जम्मकहा कुतो? ॥ २०.कुतो कयाइ मेहावी उप्पज्जति तथागता?। तथागता अपडिण्णा चक्खू लोगस्सणुत्तरा॥ अन्तं कुर्वन्ति दुःखानां, इह एकेषां आहृतम् । आख्यातं पुनरेकेषां, दुर्लभोऽयं समुच्छयः॥ इतो विध्वस्यमानस्य, पुनः संबोधिः दुर्लभा। दुर्लभास्तथार्चाः, ये धर्मार्थं व्याकुर्वन्ति ॥ ये धर्म शुद्धमाख्यान्ति, प्रतिपूर्णमनीदृशम् । अनीदृशस्य यत् स्थानं, तस्य जन्मकथा कुतः ? ।। कुतः कदाचिद् मेधाविनः, उत्पद्यन्ते तथागताः ? तथागताः अप्रतिज्ञाः, चक्षुर्लोकस्य अनुत्तराः॥ १६. जो शुद्ध, प्रतिपूर्ण और अनुपम धर्म का निरूपण करता है और यह अनुपम धर्म जिसमें ठहरता है, उसके पुनर्जन्म की बात कहां ?* २०. मेधावी तथागत (तीर्थकर)" कहां और कब उत्पन्न होते हैं ? तथागत अप्रतिज्ञ, लोक के चक्षु और अनुत्तर (श्रेष्ठ) होते हैं। २१. काश्यप (महावीर) ने उस सर्वश्रेष्ठ स्थान का प्रतिपादन किया है, जिसका आचरण कर कुछ पंडित मनुष्य उपशांत हो" निष्ठा (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं। २२. पंडित पुरुष कर्म-क्षय के लिए प्रवर्तक वीर्य को५० प्राप्त कर पूर्वकृत कर्म की निर्जरा करता है" और नये कर्म का बन्ध नहीं करता। २१. अणुत्तरे य ठाणे से कासवेण पवेदिते। जं किच्चा णिव्वुडा एगे णिठं पाति पंडिया ॥ २२. पंडिए वीरियं लद्धं णिग्यायाय पवत्तगं। धुणे पुश्वकर्ड कम्म णवं चावि ण कुव्वा॥ २३. ण कुम्वइ महावीरे अणुपुवकडं रयं। रयसा संमुहीभूते कम्मं हेच्चाण जं मतं ॥ २४. मतं सव्वसाहूणं तं मतं सल्लगत्तणं। साहइत्ताण तं तिण्णा देवा वा अविसु ते॥ २५. अविसु पुरा वीरा आगमिस्सा वि सुव्वया। दुण्णिबोहस्स मग्गस्स अंतं पाउकरा तिण्ण ॥ -त्ति बेमि॥ अनुत्तरं च स्थानं तत्, काश्यपेन प्रवेदितम् ।। यत् कृत्वा निर्वता एके, निष्ठां प्राप्नुवन्ति पण्डिताः॥ पंडितो वीयं लब्ध्वा , निर्घाताय प्रवर्तकम्। घनाति पूर्वकृतं कर्म, नवं चापि न करोति ॥ न करोति महावीरः, अनपूर्वकृतं रजः । रजसा सम्मुखीभूतः, कर्म हित्वा यद् मतम् ॥ यद् मतं सर्वसाधूनां, तद् मतं शल्यकत्तनम् । साधयित्वा तत् तीर्णाः, देवा वा अभवंस्ते ॥ अभवन् पुरा वीराः, आगमिष्या अपि सुव्रताः। दुनिबोधस्य मार्गस्य, अन्तस्य प्रादुष्करा: तीर्णाः॥ इति ब्रवोमि॥ २३. महावीर (महावीर्यवान्)२ पुरुष कर्म-परम्परा में होने वाले" रज का (बंध) नहीं करता। वह रज के सामने खड़ा होकर कर्म को क्षीण कर जो मत (इष्ट) है (उसे पा लेता है ।) २४. जो सभी साधुओं का मत (इष्ट) है वह मत" (निर्ग्रन्थ प्रवचन) शल्य को काटने वाला है। उसकी साधना कर वे संसार का पार पा जाते हैं अथवा देव होते हैं। २५. वीर्यवान् सुव्रत पहले हुए हैं और भविष्य में भी होगे । वे स्वयं तैरते हुए कठिनाई से समझे जा सकने वाले मार्ग के अन्त (उच्चतम शिखर) को प्रगट करते हैं। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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