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टिप्पण अध्ययन १५
श्लोक १ :
१. लोक ११:
अतीत, वर्तमान और भविष्य - ये तीन काल होते हैं । दर्शनावरण का अन्त करने वाला इन तीनों को जानता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- इन चारों दृष्टियों से जानता है- इसका अर्थ है वह सबको जानता है । प्रस्तुत श्लोक में जानने के अर्थ में 'मण्णति' (सं० मन्यते ) धातु का प्रयोग मिलता है और ज्ञानावरण के स्थान में दर्शनावरण का प्रयोग है। जाणइ-पास का संयुक्त प्रयोग होता है । प्राचीन काल में दर्शन का प्रयोग अधिक प्रचलित था । उत्तर-काल में ज्ञान का प्रयोग अधिक प्रचलित हो
गया ।
२. जानता है (ताई)
इसका संस्कृत रूप है तादृग्वृत्तिकार ने इसका अर्थ बायी किया है। उन्होंने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं-नावी और तायी। त्रयी का अर्थ है- त्राण देने वाला और 'तायी' का अर्थ है-जानने वाला ।'
देखें दसवेवालयं ३/१, टिप्पण पृष्ठ ४७,४८
श्लोक २ :
३. विचिकित्सा का ( वितिगिच्छाए )
पूर्णिकार ने इसका अर्थ-संदेहज्ञान किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-संयज्ञान और चित्तविष्तुति।
श्लोक ३ :
४. स्वाख्यात है ( सुक्खायं)
स्वाख्यात अर्थात् वह वचन जो पूर्वापर में अविरुद्ध तथा युक्तियुक्त है। ठाणं (३।५०७ ) में स्वाख्यात धर्म के स्वरूप का प्रतिपादन है उसके अनुसार धनवान् महावीर ने तीन प्रकार का धर्म प्ररूपित किया है-सु-अधीत सुख्यात और सु-चपस्थित (सु-आचरित) ।
जय धर्म सुधीत होता है तब वह सुध्यात होता है जब धर्म सुरूपात होता है तब वह सु-तपस्थित होता है। सु-अधीत और सु-तपस्थित धर्म स्वाख्यात धर्म है । *
सु-ध्यात
५. सत्य ( सच्चे )
सत्य का अर्थ है- अवितथ अथवा संयम ।
सत्य के तीन प्रकार हैं - तपः सत्य, संयमसत्य और ज्ञानसत्य । सत्य के संयम अर्थ की मीमांसा करते हुए चूर्णिकार कहते हैंजो यथावादी तथाकारी होते हैं, उनके मूल में संयम होता है । कथनी और करनी की समानता सत्य की सूचक है । कथनी और करनी
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१ वृत्ति, पत्र २६१ : श्राय्यसौ - त्राणकरणशीलः, यदि वा — अयवयपयमयचयतयणय गतावित्यस्य धातोर्घञ्प्रत्ययः तयनं तायः स विद्यते यस्यासौ-तायी, 'सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था' इति कृत्वा सामान्यस्य परिच्छेदकः ।
२. चूर्ण, पृ० २३९ : वितिगिखा नाम सन्देहज्ञानम् ।
२. वृति पत्र २६१ विचिकित्सा-चित्तविवृतिसंशयज्ञानम् ।
४. देखें — ठाणं ३।५०७, टिप्पण पृष्ठ २८२ :
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