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________________ मूल १. जमतो पडपणं आयमिस्सं च णायओ । सव्वं मण्णति तं ताई दंसणावरणंत ए ॥ २. अंतए वितिगिच्छाए से जाणइ अणेलिसं । अणेलिसस्स अक्खाया ण से होइ तह तह ॥ ३. तह तह सुक्खायं से य सच्चे सुआहिए । सदा सच्चेण संपणे मेति भूतेगु कप्पए । ४. भूतेसु ण विरुज्भेज्जा एस धम्मे बुसीमओ । वुसोमं जगं परिण्णाय अस्सि जीवियभावणा ॥ ५. भावणाजोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया । णावा व तीरसंपण्णा सब्वदुक्खा तिजवृति ॥ ६. तिउट्टती उ मेहावी जाणं लोगंसि पावनं । तुति पावकम्माणि णवं Jain Education International कम्मम ॥ ७. अकुब्वओ णवं णत्थि कम्मं णाम विजाणतो । णच्चाण से महावीरे जेण जाई ण मिज्जती ॥ पण्णरसमं अभयणं पन्द्रहवां अध्ययन जमईए : यमकीय संस्कृत छाया यदतीतं प्रत्युत्पन्नं, आगमिष्यच्च ज्ञायकः । सर्व मन्यते तत् तादृग, दर्शनावरणान्तकः 11 अन्तकः विचिकित्सायाः, स जानाति अनीवृशस्य न स भवति तत्र तत्र तच्च सत्यं सदा सत्येन मैत्रीं भूतेषु अनीदृशम् । आख्याता, तत्र तत्र ॥ स्वाख्यातं, सु-आहुतम् । संपन्न:, कल्पयेत् ॥ विरुध्येत भूतेषु न एष धर्मः वषीमतः । वृषीमान् जगत् परिज्ञाय, अस्मिन् जीवितभावना ॥ भावनायोगशुद्धात्मा, जले नौरिव बहुतः । नौरिव तीरसंपन्नाः, सर्वदुःखात् त्रुट्यति ।। मेधावी, त्रुट्यति तु जानन् लोके लोक पापकम् । त्रुट्यन्ति पापकर्माणि, नवं कर्म अकुर्वतः ॥ नास्ति, विजानतः । अकुर्वतो नवं कर्म नाम ज्ञात्वा स महावीरः, यो न जायते न म्रियते । हिन्दी अनुवाद १. दर्शनावरण का अन्त करने वाला ज्ञाता और द्रष्टा पुरुष अतीत, वर्तमान और भविष्य ' -- सबको जानता है । २. विचिकित्सा का अन्त करने वाला अनुपम तत्त्व को जानता है । अनुपम तत्त्व का व्याख्याता यत्र-तत्र नहीं होता। ३. ( जहां विचिकित्सा का अन्त होता है) वहां-वहां स्वाख्यात हैं । वह सत्य' और सुभाषित यह हैसदा सत्य से संपन्न हो जीवों के साथ मैत्री करे । ४. जीवों के साथ विरोध न करे यह संयमी का धर्म है । संयमी पुरुष परिज्ञा से जगत् को जानकर इस धर्म में जीवित - भावना करे । ५. जिसकी आत्मा भावना-योग से शुद्ध है" वह जल में नौका की तरह कहा गया है।" वह तट पर पहुंची हुई नौका की भांति सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।" ६. मेधावी पुरुष लोक में पाप को जानता हुआ उससे मुक्त होता है । उसके पाप-कर्म टूट जाते हैं" जो नए कर्म का अकर्त्ता है । ७. जो नए कर्म का कर्त्ता नहीं है, विज्ञाता (पा द्रष्टा ) है उसके नया कर्म नहीं होता। इसे जानकर जो ( ज्ञाताभाव या चैतन्य के शुद्ध स्वरूप में) महावीर्य - वान्" है वह न जन्म लेता है और न मरता हैमुक्त हो जाता है।" १६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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