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सूयगडो १
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प्रध्ययन १४ : टिप्पण ३२-३४ तुम्हारे लिए योग्य नहीं है, क्योंकि तुम्हारे आगमों में यह प्रतिपादित है कि मुनि युग-प्रमाण भूमि को देखता हुआ धीरे-धीरे चले ।'
इस प्रकार व्युत्थित के द्वारा आगम-प्रमाण पुरस्सर अनुशासित होने पर समता में रहना मुनि का सामायिक धर्म है। ३२. किसी पतित घटदासी के द्वारा (अमुदिताए घडवासिए)
अभ्युत्थित का अर्थ है --तत्पर होना । प्रकरणवश अभ्युत्थित का अर्थ दुःशील के आचरण में तत्पर किया गया है।'
घटदासी का अर्थ हैं --पानी लाने वाली दासी। घटदासी के द्वारा भी प्रमादाचरण के प्रति सावधान किए जाने पर समता में रहना मुनि का सामायिक धर्म है । घटदासी के विषय में यह कथन है तो भला अल्पशील वाले व्यक्ति के द्वारा कहने पर तो अस्वीकार करने की बात ही नहीं होनी चाहिए ।
वह घटदासी सर्पिणी की भांति फुफकार करती हुई मुनि को सावधान करते हुए कहे-'अरे ! क्या तुम ऐसा कर सकते हो?
अथवा अत्यन्त पतित दासदासी भी सावधान करे तो मुनि ऐसा न कहे -'तुम भले ही सच कह रही हो, परन्तु मुझे कहने वाली तुम कौन हो ?'
'घडदासिए' यह शब्द 'घडदासीए' होना चाहिए था। किन्तु छन्द की दृष्टि से ह्रस्व का प्रयोग किया है। ३३. (अगारिणं वा समयाणुसि?)
अगारी अर्थात् घर-गृहस्थी, चाहे फिर वह स्त्री, पुरुष या नपुंसक हो।" प्रस्तुत प्रसंग में 'समय' का अर्थ है-सामाजिक-शास्त्र ।
गृहस्थों के सारे अनुष्ठान सामाजिक-शास्त्र के द्वारा अनुशासित होते हैं। प्रमादाचरण करने वाले मुनि को गृहस्थ कहता है-'मुने! गृहस्थ के लिए भी ऐसा आचरण करना विहित नहीं है और आप ऐसा आचरण कर रहे हैं ?" ३४. श्लोक ८:
प्रस्तुत श्लोक में 'समय' शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है । यहां अनुशासन का प्रयोग करने वालों के चार युगल हैं -- १. स्वपक्ष और प्रतिपक्ष के व्युत्थित । २. बच्चे या बूढ़े । ३. घटदासी।
४. गृहस्थ । १. चूणि, पृ० २३० : विउद्वितो णाम विग्गुतो, यया व्युस्थितपरः -व्युत्थितोऽस्य विमवः सम्पत्, व्युत्थिताः संयमविप्रतिपन्ना इत्यर्थः ।
पावस्थादीनामन्यतमेन वा क्वचित् प्रमादाच्चातुऐंग वा त्वरितत्वरितं गच्छन् 'जधा तुम्भ ण वट्टति तुरितं गंतुं, कहं कोडगादीनि न हिंसध ? रुस्सिहित्तु वा। एवं मूलगुणेसु वा उत्तरगुणेसु वा विराधणाए अण्णतरेण वा समये
नाऽनुशास्त–ण तुम्भ वट्टति एवं काउं, जुअंतरपलोअणेण होतव्वं । (ख) वृत्ति, पत्र २५१ । २. (क) चूणि, पृ० २३० : अतीव उत्थिता अब्भुट्ठिता, कुत्रोत्थिता ? दौ:शील्ये ।
(ख) वृत्ति, पत्र २५१ : अतीवाकार्यकरणं प्रति उत्थिता। ३. चूणि, पृ० २३०: घटदासीग्रहणं तोसे वि ताव णोदिज्जंते ण रुस्सितव्वं, कि पुण जो तणुआणि वि सोलाणि धरेति ? अथवा
अब्भुद्विता सा बंडघट्टिता भुगगीव धमधमेंती रुट्ठा गं भणेति--तुब्भं वट्टति एवं कातु ? अधवा अन्भुट्टिते त्ति पडिपक्खवयणेण गत, चन्द्रगुप्तस्त्रीवत् पुरुषः, तद्यथा-दासदासी पतितेभ्योऽपि पतिता सा वि चोदंति गं
वक्तव्या-सच्चा वि ताव तुमं का होसि ममं चोदेतुं ? ४. चूणि, पृ० २३० : अगारिणं ति स्त्री-पु-नपुंसकं वा ५. वृत्ति, पत्र २५१ । गृहस्थानामपि एतन्न युज्यते कर्तुं यवारब्धं भवता ।
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