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सूयगडो १
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अध्ययन १४ टिप्पण ३५-३६
पहले युगल के संदर्भ में 'समय' का अर्थ आगम' तथा शेष तीन के संदर्भ में 'समय' का अर्थ लौकिक सिद्धान्त' किया गया है। प्रसंगवश यह उचित प्रतीत होता है ।
इलोक
३५. फोन करे (... कुन्भे)
दूसरे के द्वारा दुर्वचन कहने पर वह मुनि सोचे
'आष्टेन मतिमता, तरयार्थविचारणे मतिः कार्या ।
यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ॥
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— 'कोई व्यक्ति आक्रुष्ट हो तब वह उसके आक्रोश करने के कारणों को खोजे । यदि आक्रोश करने का कारण उपस्थित है तो उस पर क्रोध क्यों किया जाए ? यदि आक्रोश व्यर्थ ही हो रहा है तो उससे क्या उस पर क्रोध क्यों किया जाए ? *
३६. चोट न पहुंचाए ( पव्वज्जा )
इसका अर्थ है - लकड़ी, पत्थर या ईंट आदि से मारना, चोट पहुंचाना।*
सेयं खमेयं)
३७. (तहा करिस्
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अनुसासन किए जाने पर कोप करना, व्यथित करना और परुष वचन बोलना --ये वर्जित हैं । अनुशासन के उत्तर में दो वाक्यों का प्रयोग होना चाहिए (१) तहा करिस्स और (२) सेयं खुमेयं ।
चूर्णिकार के अनुसार ' तथा करिष्यामि' - वैसा करूंगा - यह स्वपक्ष में 'मिच्छामि दुक्कड' के समान तथा पर-पक्ष वालों के लिए - 'श्रेयः खलु मम' - 'यह मेरे लिए श्रेय है' - यह कहना उचित है ।"
वृत्तिकार ने स्व-पक्ष या पर-पक्ष का विभाजन नहीं किया है।
श्लोक १० :
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३८. अमूढ व्यक्ति ( अमूडा)
इसका अर्थ है - सही मार्ग का जानकार । वह पथदर्शक जो सही-सही जानता है कि कौन-सा मार्ग किस ओर जाता है । " २६. मार्ग दिखलाते हैं ( मग्गाणु सासंति)
यहां दो पदों - मग्ग + अणुसासंति में संधि हुई है । इसका अर्थ है कि पथदर्शक उस दिग्मूढ पथिक को सही मार्ग दिखाता है । वह कहता है - तुम इस मार्ग से चलो, अपने गन्तव्य तक पहुंच जाओगे । यह मार्ग तुम्हारे लिए हितकर और क्षेमंकर है । इस १ वृत्ति, पत्र २५१ चोदितः स्वसमयेन तद्यथा— नैवंविधमनुष्ठानं भवतामागमे व्यवस्थितं येनाभिप्रवृत्तोऽसि । यदि वा व्युत्थितः - संयमाद् भ्रष्टस्तेनापरः साधुः स्खलितः सन् स्वसमयेन - अर्हत्प्रणीतागमानुसारेणानुशासितः । २. वृत्ति, पत्र २५१: गृहस्थानां यः समयः अनुष्ठानं तत्समयेनानुशासितः । ३. वृत्ति, पत्र २५२ ॥
४. (क) चूर्ण, पृ० २३१: कटु-लोट्ठ- इट्टादीहि ।
(ख) वृत्ति, पत्र २५२ : प्रकर्षेण 'व्यथेद्' - दण्डादिप्रहारेण पीडयेत् ।
५. चूर्ण, पृ० २३१: सपक्खेण वा ओसण्णेण चोदितो भणति को तुमं ममट्ठ े वा चोबेतुं भवति ? तथा करिस्सं ति सपक्खे मिच्छामि
परतः ।
६. वृत्तपत्र २५२ममेवानुष्ठायिनो दोषो येनायमपि मामेवं चोदयति पोदितश्चैवंविधं भवता असदाचरणं न विधेयमेवंविधं च पूर्वषिभिरनुष्ठितमनुष्ठेयमित्येवंविधं वाक्यं तथा करिष्यामीत्येवं मध्यस्थवृत्या प्रतिभृगुदा अनुतिष्ठ मिथ्यादुष्कृतादिना निवर्तेत, यदेतच्चोदनं नामैतन्ममैव श्रेयः ।
७. वृत्ति, पत्र २५२ : अमूढाः
सदसन्मार्गज्ञाः 1
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