SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 608
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ अध्ययन १४ : ठिप्पण २८-३६ वृत्तिकार ने दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ तथा श्रुत में विशिष्ट मुनि को 'रानिक' माना है।' देखें दसवेआलियं ९।३।३॥ २८. सह-दीक्षित के द्वारा (समव्वएण) - इसका अर्थ है-- दीक्षा-पर्याय अथवा अवस्था में समान । हमने इसका संस्कृत रूप 'समव्रतेन' और अर्थ सहदीक्षित किया है । चूणि और वृत्ति के अनुसार इसका संस्कृत रूप 'समवयसा' होता है। 'समवयस्' का प्राकृत रूप 'समवय' होता है। यहां वकार का द्वित्वीकरण छन्द की दृष्टि से माना जाए तभी इसका 'समन्वय' रूप बन सकता है। रात्निक के संदर्भ में 'समन्वय' का अर्थ समव्रत अधिक संगत प्रतीत होता है। २६. स्थिर रूप में (थिरओ) इसका अर्थ है-प्रमाद के प्रति सावधान किए जाने पर प्रमाद पुनः न दोहराना।' ३०. (णिज्जंतए........... अपारए से) 'नीयमान' का अर्थ है-ले जाया जाता हुआ, अनुशासित किया जाता हुआ।" कोई व्यक्ति नदी की धारा में बहता जा रहा है। कोई उसे कहता है-'भाई ! तुम वेग से बहते हुए इस काठ का, सरकने के स्तंब का या वृक्ष की शाखा का मुहूर्त मात्र के लिए अवलंबन लो। तुम पानी में डूबने से बच कर पार पा जाओगे।' ऐसा कहने पर वह उस पर कुपित होता है और वैसा नहीं करता। वह व्यक्ति नदी में डूब कर मरता है, कभी उस पार नहीं जा पाता। इसी प्रकार प्रमादाचरण करने वाले मुनि को आचार्य बार-बार सावधान करते हैं और उसे मोक्ष-मार्ग की ओर अग्रसर करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु वह कषाय के वशीभूत होकर उनके उपदेश को स्वीकार नहीं करता। अथवा अन्य मुनियों द्वारा सावधान किए जाने पर वह अहं से परिपूर्ण होकर सोचता है-'ये छोटे और अल्पश्रुत मुनि भी मुझे सावधान कर रहे हैं।' ऐसा व्यक्ति कभी संसार का पार नहीं पा सकता। श्लोक ८: ३१. किसी शिथिलाचारी व्यक्ति के द्वारा समय (धार्मिक सिद्धान्त) के अनुसार (विउट्टितेणं समयाणुसि ) व्युत्थित का अर्थ है--संयम के प्रतिकूल आचरण करने वाला । व्युत्थान चित्त की चंचल अवस्था है। पातंजल योगदर्शन में व्युत्थान-संस्कार निरोधसं-स्कार का प्रतिपक्षी है । व्युत्थान धर्म की प्रधानता वाला व्युत्थित व्यक्ति संयम से विचलित हो जाता है, इसलिए उसकी संज्ञा व्युत्थित है। वह स्वतीथिक भी हो सकता है और परतीथिक भी। कोई मुनि प्रमाद का आचरण करता है। वह ईर्या-समिति का सम्यग् शोधन न करता हुआ त्वरित गति से चल रहा है। तब व्युस्थित व्यक्ति उसे कहता है-'मुने ! ऐसा चलना १. वृत्ति, पत्र २५१ : रत्नाधिकेन वा प्रव्रज्यापर्यायाधिकेन श्रुताधिकेन वा । २. चूणि, पृ० २३० : समवयो परियारण वयसा वा। ३. (क) चूणि, पृ० २३०। (ख) वृत्ति, पत्र २५१ : समवयसा वा। ४. चूणि, पृ० २३० : थिरं नाम जं अपुणक्कारयाए अन्मुट्ठति । ५. वृत्ति, पत्र २५१ : नीयमानः'-उामानोऽनुशास्यमानः । ६. चूणि, पृ० २३० : यथा नदीपूरेण हियमाणः केनचिदुक्तः-इदं तुरकाष्ठं अवलम्बस्व शरस्तम्बं वृक्षशाखां वा मुहूर्तमानं चाऽस्मानं धारय, इत्युक्तो रुष्यति न वा करोति, यदुच्यते स हि अपारगे भवति, पारं गच्छतीति पारगः, एवं समिओ वि । अथवा नियन्त्रणामिवाऽऽतुरः न रागपारं गच्छति । अथवा णिज्जतग इति णिज्जंततो, स हि आचार्येर्मोक्षं प्रति नीयमानोऽपि सम्यगुपदेशः पडिचोअणाहि य ण पारं गच्छति संसारस्य कषायवशात्, अहं पि चोइज्जामि डहरेहि गुपदेशः पाल ७. पातञ्जलयोगवर्शन Im जलयोगी अप्पसुत्तेहि Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy