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सूयगडो।
अध्ययन १४ : टिप्पण २२-२७ २२. मध्यस्थ (अणासवे)
आस्रव का अर्थ है-राग-द्वेष युक्त प्रवृत्ति । जो मध्यस्थ या राग-द्वेष रहित होता है वह अनाश्रव कहलाता है।
शब्दों को अच्छे या बुरे रूप में ग्रहण करना आस्रवण है। इसके विपरीत जो शब्द आदि के प्रति राग-द्वेष नहीं करता, उनके विषयों में मध्यस्थ रहता है, वह अनास्रव होता है ।
चूर्णिकार ने 'अणासए' पाठ माना है । उसके संस्कृत रूप तीन हो सकते हैं--अनाशय, अनाश्रय और अनाश्रव ।' २३. निद्रा (णिई)
निद्रा प्रमाद का एक प्रकार है । भिक्षु दिन में सोकर नींद न ले। जिनकल्पी मुनि के लिए यह विधान है कि वह रात्री में भी दो प्रहर से ज्यादा नींद नहीं लेता। बहुत थोड़ी नींद लेने वाला भी शरीर-धारण के लिए नींद लेता है, क्योंकि नींद परम विश्राम है।' २४. कैसे होगा ? कैसे होगा? (कहं कह)
क्या मैं अपनी प्रव्रज्या को जीवन भर नहीं निभा पाऊंगा? क्या मुझे समाधि-मरण प्राप्त नहीं होगा ? मैं जो साधना करता हूं उसका कुछ फल होगा या नहीं? इस प्रकार का चिन्तन करना।' २५. विचिकित्सा को (वितिगिच्छ)
विचिकित्सा का सामान्य अर्थ है-संदेह, शंका । साधक अपनी साधना के प्रति संदेहशील न रहे। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति भी निःशंक रहे । वह यही माने-'तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं ।' वह प्रवचन करते समय तथा अन्यकाल में भी इस सूत्र को याद रखे । वह ऐसा प्रवचन न करे जिससे दूसरों के मन में विचिकित्सा उत्पन्न हो।
श्लोक ७ :
२६ (जन्म-पर्याय से) छोटे-बड़े तया (दोक्षा-पर्याय से) छोटे-बड़े (डहरेण वुड्ढेण)
___ 'डहर' का अर्थ है छोटा और 'बुड्ढ' का अर्थ है बूढा । प्रस्तुत प्रसंग में दीक्षा-पर्याय और अवस्था की दृष्टि से छोटे-बड़े का उल्लेख किया गया है।
चणिकार और वृत्तिकार ने 'डहर' के साथ जन्म-पर्याय और दीक्षा-पर्याय को जोड़ा है। चूर्णिकार ने वृद्ध के साथ अवस्था का और वृत्तिकार ने अवस्था और श्रुत-दोनों का संबंध जोड़ा है।' २७. रात्निक (रातिणिएण)
___'रानिक' का शाब्दिक अर्थ है -दीक्षा-पर्याय में बड़ा । चूणिकार ने आचार्य, दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ तथा प्रवर्तक, गणी, गणधर, गणावच्छेदक और स्थविर को 'रात्निक' शब्द के अन्तर्गत गिनाया है।' १. चूणि, पृ० २२६ । २. चूणि, पृ० २२६ : दिवसतो गणिहायति, रति पि दोहि जामे जिणकप्पो, एकान्तं पि तणुणिद्दो सरीरधारणार्थ स्वपिति, निद्रा हि
परमं विधामणम् । ३.णि पृ० २२६ : कथं कथमिति, किमहं पव्वजण णित्थरेज्ज? समाधिमरणं ण लभेज ? अधवा कथं कथमिति सम्यगनुचीर्ण
स्यास्य किं फलमस्ति नास्ति ? ४. चूणि पृ० २२६ । ५. (क) चूणि, पृ० २३० : डहरो जन्म-पर्यायाभ्याम् ।
(ख) वृत्ति, पत्र २५१ : वयः पर्यायाभ्यां क्षुल्लकेन-लघुना । ६. (क) चूणि, पृ० २३० : वुड्डो वयसा ।
(ख) वृत्ति, पत्र २५१ : 'वृद्धेन वा' वयोऽधिकेन श्रुताधिकेन वा। ७.णि, पृ० २३० : रायणिओ आयरिओ परियारण वा पवत्तगाईण वा पम्चानामन्यतमेन ।
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