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आमुख
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'धर्म' है। इसमें ३६ श्लोक हैं और इनमें श्रमण के मूलगुण तथा उत्तरगुणों की विशद चर्चा है। धर्म क्या है और उसकी प्राप्ति के क्या-क्या उपाय है ? लौकिक धर्म और लोकोत्तर धर्म की क्या व्याख्या है ? विभिन्न लोग धर्म की विभिन्न परिभाषाएं करते हैं। उनमें कौन सी परिभाषा धर्म की कसौटी पर खरी उतरती है। आदि-आदि प्रश्नों का इन श्लोकों में समुचित समाधान दिया गया है।
____ नियुक्तिकार के अनुसार प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य है- भावधर्म । यही भावसमाधि है और यही भावमार्ग है ।' प्रस्तुत आगम के दसवें अध्ययन का नाम 'समाधि' और ग्यारहवें अध्ययन का नाम 'मार्ग' है। इस प्रकार तीनों अध्ययन (९-११) परस्पर संबंधित हैं । भावधर्म के दो भेद हैं-श्र तधर्म और चारित्रधर्म। चारित्रधर्म के दस भेद हैं-क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव आदि । भावसमाधि के भी ये ही भेद हैं। समाधि का शाब्दिक अर्थ है-आत्मा में क्षान्ति आदि गुणों का सम्यक् आरोपण करना । इसलिए भावधर्म और भावसमाधि में कोई अन्तर नहीं है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीनों मोक्ष के मार्ग हैं । यही भावमार्ग है। समानता की इस पृष्ठभूमि पर तीनों-धर्म, समाधि और मार्ग-एक हो जाते हैं।'
नियुक्तिकार ने प्रस्तुत अध्ययन की नियुक्तिगाथा (६२) में 'धम्मो पुवुद्दिठ्ठो' का प्रयोग किया है। वृत्तिकार ने पूर्व शब्द से दशवकालिक की सूचना दी है। दशवकालिक के तीसरे अध्ययन का नाम है 'क्षुल्लकाचारकथा' और छठे अध्ययन का नाम है 'महाचारकथा'। दोनों में मुनि के आचार-धर्म का निरूपण है। तीसरे अध्ययन का निरूपण संक्षेप में है और छठे अध्ययन का निरूपण विस्तार से हैं । दशवकालिक के छठे अध्ययन का नाम 'धर्मार्थकाम' भी है। उसकी नियुक्ति में धर्म की व्याख्या की गई है, वह यहां ज्ञातव्य है ।' प्रस्तुत अध्ययन का अधिकार है-भावधर्म ।
धर्म का अर्थ है-स्वभाव । चेतन का अपना स्वभाव है और अचेतन का अपना स्वभाव है। चेतन का स्वभाव है उपयोग । इसी प्रकार अचेतन का अपना स्वभाव होता है। जैसे :
धर्मास्तिकाय का स्वभाव है, गति । यह उसका धर्म है । अधर्मास्तिकाय का स्वभाव है स्थिति । यह उसका धर्म है। आकाशास्तिकाय का स्वभाव है अवगाहन । यह उसका धर्ष है।' पुद्गलास्तिकाय का स्वभाव है ग्रहण । यह उसका धर्म है।
मिश्र द्रव्यों (दूध ओर पानी) का अपना स्वभाव होता है। उनका परिणमन शीतल होता है। इसी प्रकार गृहस्थों के जो कुलधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि हैं, वे सब स्वभाव और व्यवहार को ओर निर्देश करते हैं । जिस द्रव्य के दान से धर्म होता है, उस क्रिया में कार्य का उपचार कर देय द्रव्य को दान धर्म कह दिया जाता है । ये सारे द्रव्य धर्म के निर्देश हैं।'
भावधर्म के दो भेद हैं-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक धर्म दो प्रकार का है१. गृहस्थों का धर्म । यहां धर्म शब्द कर्त्तव्य, व्यवहार के अर्थ में प्रयुक्त है।
२. पाषंडियों का धर्म । यहां धर्म शब्द क्रियाकांड के लिए प्रयुक्त है । १. नियुक्ति, गाथा ६२ : धम्मो पुवुद्दिवो भावधम्मेण एत्थ अधिकारो।
एसेव होति धम्मो एसेव समाधिमग्गो त्ति ॥ २. वृत्ति, पत्र १७६ । ३. दशवकालिक नियुक्ति, गाथा २४६-२६६ । ४. उत्तराध्ययन २८९ : गइलक्खणो उ धम्मो अहम्मो ठाणलक्खणा।
भायणं सव्वदव्वाणं नहं अवगाहलक्खणं ॥ ५. चूणि, पृ० १७४।
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