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________________ सूयगडो १ ३८४ अध्ययन : श्रामुख लोकोत्तर धर्म तीन प्रकार का है- ज्ञान, दर्शन और चारित्र । लोकोत्तर चारित्रधर्म की व्याख्या के प्रसंग में चूर्णिकार ने पांच प्रकार की चारित्र ( सामायिक चारित्र आदि) अथवा महाव्रत, अथवा चातुर्याम धर्म अथवा पांच महाव्रत और रात्रीभोजनविरमण व्रतइस प्रकार के प्रशस्त भावधर्म का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने केवल पांच प्रकार के चारित्र का ही ग्रहण किया है।" नियुक्तिकार ने बतलाया है कि प्रशस्तधर्म की आराधना करने वाले संस्तव न करें, उनके साथ न रहें। चूर्णि के अनुसार उन्हें न कुछ दान दें और न उनसे कुछ ग्रहण करे । प्रस्तुत अध्ययन के दूसरे श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने किया है १. ब्राह्मण या श्रावक, क्षत्रिय और वैश्य हवन आदि क्रिया में धर्मं मानते थे । २. चांडाल - ये भी कहते हम भी धर्म क्रिया में अवस्थित हैं, क्योंकि हम खेती आदि क्रिया नहीं करते । ४. ऐषिक - हस्तितापस आदि भी यही - ५. वंशिक - इसके दो अर्थ है- वणिक् अथवा वैश्या । कहते कि हम एक हाथी को मारकर अनेक महीनों तक उसका मांस भक्षण करते हुए, शेष जीवों को नहीं मारते - यह हमारा धर्म है । Jain Education International ५. चूर्ण, पृ० १७५ : विभिन्न जातीय मनुष्यों की धर्म विषयक मान्यता का उल्लेख वणिक् कहते हैं - हम अपने-अपने कौशल से आजीविका का उपार्जन करते हैं, यह हमारा धर्म है । वेश्याएं कहती हैं - हम अपनी मर्यादा का पालन करती हैं, यह हमारा धर्म है । ६. शूद्र- ये कहते हम अपने कुटुम्ब का भरण-पोषण करते हैं । यह हमारा धर्म है । " चौथे श्लोक में तत्कालीन प्रचलित कुछेक परंपराओं का उल्लेख है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने उनका वर्णन किया है । शव का अग्निसंस्कार करना, जलांजलि देना, पितृपिण्ड देना आदि मरणोपरान्त कार्य अनेक धर्म-परम्पराओं में मान्य थे । कुछेक लोग मरनेवाले के उपलक्ष में भैंस, बकरी आदि की बलि भी देते थे । " श्रमण पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशील श्रमणों के साथ द्यूत के प्रकारों की जानकारी देने के लिए सतरहवें श्लोक में दो शब्दों - अष्टापद और वेध तथा अठाहरवें श्लोक में नालिका शब्द का प्रयोग हुआ है । १. चूर्ण, पृ० १७४ ॥ २. वृति पत्र १०६ चारिणमपि सामायिकादि मेदात् । २. निक्तिगाथा ९५ पासपोसण-कुशीलसंयोग किर बट्टते का ४. वृषि, पृ० १७४ बारहवें श्लोक में प्रयुक्त 'सिरोवेधे' (सिरावेधे) शब्द चिकित्सा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । चिकित्सा शास्त्र में अनेक सिराओं – नाड़ियों का वेधन करना विहित है । यह 'नाड़ीवेधन' कला का द्योतक है। वर्तमान में 'एक्यूपंक्चर के नाम से यह चिकित्सा पद्धति चीन और जापान में प्रचलित है । - प्रस्तुत अध्ययन में श्लोक - विभागगत वर्ण्यविषय इस प्रकार है- ६. चूर्णि, पृ० १७६ । वृत्ति, पत्र १७८ । ७. चूर्ण, पृ० १७६ पासपोसम्पादहि दान-महणं काय संसग्गी वा । ।...... माहणा मरुगा सावगा वा । खत्तिया उग्गा भोग्गा राहण्णा इक्खागा राजानस्तदाश्रयिणश्च । अथवा क्षत्र ेण धर्मेण जीवन्त इति क्षत्रियाः । वैश्याः सुवर्णकारादयः, ते हि हवनाविभिः क्रियामिधर्ममिच्छन्ति । चण्डाला अपि बअपमपि धर्मावस्थिताः कृष्याविक्रियां न कुर्मः । एवन्तीति एविका मृगलुब्धका हस्तितापसारच मांसतोम गान हरितनश्च एवन्ति मूल कंद- फलानि च ये चापरे पायण्डा नानाविधेयामामेति यथेष्टानि चान्यानि विषयसाधनानि । अथ वैशिकावणिज, तेऽपि किल कलोपजीवित्वाद् धर्मं किल कुर्वते । अथवा वेश्यास्त्रिय वंशिका, ता अपि किस सर्वाविशेषाद वंश्यधमें वर्तमाना धर्म कुर्वन्ति शूद्रा अपि कुदुम्बभरणादीनि कुर्वन्तो धर्ममेव कुर्वते । महिष च्छागाद्याश्च वध्यन्ते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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