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सूयगडो १
अध्ययन १६ : प्रामुख १. स्वसमय और परसमय का परिज्ञान करने से मुनि सम्यक्त्व में स्थिर होता है। २. ज्ञान कर्मक्षय का कारण है । आठों कर्मों के क्षय के लिये प्रयत्न करने वाला मुनि होता है । ३. अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को समभाव से सहनेवाला साधु होता है । ४. विश्व में स्त्री परीसह दुर्जेय है । जो इसको जीत लेता है वह मुनि होता है । ५. नारकीय वेदनाओं को जानकर जो उनसे उद्विग्न होता है, नरक-योग्य कर्म से विरत होता है, वह श्रामण्य में स्थित होता
६. चार ज्ञान से संपन्न भगवान् महावीर ने भी इस कर्मक्षय के लिये संयम का सहारा लिया था, वैसे ही छद्मस्थ मुनि को __ भी संयम के प्रति उद्यमशील रहना चाहिये । ७. कुशील व्यक्ति के दोषों को जानकर मुनि सुशील के प्रति स्थिर रहे। ८. बालवीर्य का प्रतिहार कर, पंडितवीर्य के प्रति उद्यमशील रहकर, सदा मोक्ष की अभिलाषा करनी चाहिये। ६. क्षांति, मुक्ति आदि धर्मों का आचरण कर मुनि मुक्त हो जाता है। १०. संपूर्ण समाधि से युक्त मुनि सुगति को प्राप्त करता है। ११. मोक्षमार्ग के तीन साधन हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र। तीनों की आराधना करनेवाला मुनि समस्त ___ क्लेशों से मुक्त हो जाता है। १२. अन्यान्य दर्शनों के अभिमतों की गुणवत्ता और दोषवत्ता का विवेक कर मुनि उनमें श्रद्धाशील नहीं होता। १३. शिष्य के दोषों और गुणों को जानकर सद्गुणों में वर्तन करने वाला मुनि अपना कल्याण कर लेता है। १४. प्रशस्त भावग्रन्थ से भावित आत्मा वाला मुनि बंधन के सभी स्रोतों को उच्छिन्न कर देता है । १५. मुनि यथाख्यात चारित्र का अधिकारी होता है।
इस प्रकार इन पन्द्रह अध्ययनों में मोक्षमार्ग के लिये प्रस्थित मुनि के लिये करणीय और अकरणीय का विशद विवेचन किया गया है। प्रस्तुत सोलहवें अध्ययन में उन्हीं का संक्षेप मुनि आदि के विशेषण के रूप में निरूपित है।
प्रस्तुत अध्ययन में 'माहण, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ'-इन चारों के निर्वचन बतलाये गये हैं । 'माहण' शब्द के निर्वचन में सोलह विशेषण प्रयुक्त हैं । 'श्रमण' शब्द के निर्वचन में बारह, 'भिक्षु' शब्द के निर्वचन में आठ और 'निर्ग्रन्थ' शब्द के निर्वचन में पन्द्रह विशेषण प्रयुक्त हैं।
माहण, समण, भिक्खु और निग्गंथ-ये चार मुनि-जीवन की साधना भूमिकाएं प्रतीत होती हैं । चूणिकार ने 'समण', 'माहण' और 'भिक्खु', को एक भूमिका में माना है और 'निग्गंथ' की दूसरी भूमिका स्वीकार की है। निर्ग्रन्थ की भूमिका का एक विशेषण हैआत्मप्रवाद-प्राप्त । चौदह पूर्वो में 'आत्मप्रवाद' नाम का सातवां पूर्व है। जिसे आत्मप्रवादपूर्व ज्ञात होता है वही निर्ग्रन्थ हो सकता है। माहण, श्रमण और भिक्षु के लिये इसका ज्ञात होना अनिवार्य नहीं है।
औपपातिक सूत्र में भगवान महावीर के साधुओं को चार भूमिकाओं में विभक्त किया गया है-श्रमण, निर्ग्रन्थ, स्थविर और अनगार । वहां श्रमण सामान्य मुनि के रूप में प्रस्तुत है। निर्ग्रन्थ की भूमिका विशिष्ट है । उसमें विशिष्ट ज्ञान, विशिष्ट बल, विशिष्ट लब्धियां (योगज विभूतियां), विशिष्ट तपस्याएं और विशिष्ट साधना की प्रतिमाएं उल्लिखित हैं। स्थविर की भूमिका का मुनि राग-द्वेष विजेता, आर्जव-मार्दव आदि विशिष्ट गुणों से संपन्न, आत्मदर्शी, स्वसमय तथा परसमय का ज्ञाता, विशिष्ट श्रुतज्ञानी और तत्त्व के प्रतिपादन में सक्षम होता है । अनगार की भूमिका का मुनि विशिष्ट साधक और सर्वथा अलिप्त होता है।
प्रत्येक भूमिका में मुनि के लिये जो भिन्न-भिन्न विशेषण हैं वे ही साधना की भिन्न-भिन्न भूमिकाओं को सूचना देते हैं। इस प्रसंग में प्रस्तुत सूत्र और औपपातिक सूत्र का तुलनात्मक अध्ययन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । १. चूणि, पृ० २४८ : जहविट्ठस ठाणेस वट्टति, ते वि य समण-माहण-भिक्खुणो। णिग्गंथे किंचि जाणत्तं । २. समवाओ १४॥२॥ ३. ओवाइयं, सूत्र २३-२७ ।
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