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सूयगडो १
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अध्ययन १६ : प्रामुख
प्रस्तुत आगम के अनुसार 'माहण' की भूमिका का साधक सब पापकर्मों से विरत है । पापकर्म के अठारह प्रकार हैं-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पंशुन, रति, अरति, मायामृषा और मिथ्यादर्शनशल्य । प्रस्तुत भूमिका का मुनि राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रति, अरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य से विरत होता है । इसका अर्थ है कि 'माहण' अठारह पापों में से उत्तरवर्ती नौ पापों के परित्याग की विशेष साधना करते थे। इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती परम्परा में प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट नौ पापों के वर्जन में ही 'माहण' दीक्षा का स्वरूप निर्धारित किया गया हो। 'समण' की भूमिका में भी पांच महाव्रतों का उल्लेख नहीं है। उसमें अतिपात (हिंसा), मृषावाद और बहिस्तात् (परिग्रह), क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष--इन आदानों से विरत होने का उल्लेख है। 'भिक्षु' की भूमिका में एक सर्वसहिष्णु, देहनिरपेक्ष, अध्यात्मयोगी, स्थितात्मा मुनि का रूप सामने आता है। दशवकालिक के दसवें अध्ययन में प्रयुक्त व्युत्सृष्टकाय, परीषहोपसर्गजयी, अध्यात्मयोगी, स्थितात्मा आदि शब्दों के संदर्भ यहां खोजे जा सकते हैं।
प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त -माहन, श्रमण, भिक्षु और निर्ग्रन्थ-इन चारों शब्दों के स्वरूप का निरूपण अगले सूत्रों (३, ४, ५, ६) में हुआ है।
चूर्णिकार के अनुसार ये चारों शब्द एकार्थक हैं, किन्तु उनकी व्यंजन-पर्याय (शाब्दिक-दृष्टि) से भिन्नता है।' माहण
जो यह कहता है- किसी भी जीव को मत मारो, जो किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता, वह माहण कहलाता है। समण
जिसका मन शत्रु और मित्र के प्रति सम रहता है, जिसके लिये न काई प्रिय है और न कोई द्वेष्य, वह 'समन' (श्रमण) कहलाता है।
मिक्स
जो कर्मों का भेदन करता है, वह भिक्षु कहलाता है। णिग्गंय
जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थ से रहित होता है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है।
प्रस्तुत आगम के प्रथम श्रुतस्कंध का आदि-शब्द है-"बुज्झेज्ज । यह ग्रन्थ का आदि-मंगल है। मध्यमंगल के रूप में आठव अध्ययन के प्रथम श्लोक में प्रयुक्त 'वीर' शब्द माना जा सकता है। इस अध्ययन का प्रथम शब्द 'अथ' अन्त्य मंगल है।
इस प्रकार यह श्रुतस्कंध तीनों मंगलों-आदि-मंगल, मध्य-मंगल और अन्त-मंगल से युक्त होने के कारण मंगलमय है।
इस अध्ययन का अंतिम वाक्य है.---'से एवमेव जाणह जमहं भयंतारो'-इसे ऐसा ही जानो जो मैंने भदन्त (महावीर) से सुना है।
सुधर्मा स्वामी ने जम्बू आदि श्रमणों को संबोधित कर कहा--आर्यो ! जो मैंने कहा है, उसे तुम वैसा ही जानो। मैंने जैसा महावीर से सुना है, वैसा कहा है। स्वेच्छा से कुछ भी नहीं कहा है।'
१. चूर्णि, पृ० २४६ । एवमेतेगट्ठिया माहण णामा चत्तारि, बंजणपरियाएण वा किंचि णाणत्तं, अत्थो पुण सो च्चेव। २. चूणि, पृ० २४६ : मा हणह सव्वसत्तेहि भणमाणो अहणमाणो य माहणो भवति । मित्ता-रिसु समो मणो जस्स सो भवति समणो,
अथवा 'णत्थि य से कोई वेसो पिओ ब०।' 'मिदिर् विदारणे' क्षु इति कर्मण आख्या, तं मिवंतो भिक्खू भवति ।
बन्झ-अन्तरातो गंथातो णिग्गतो णिग्गंथो। ३. (क) चूर्णि, पृ० २४८ ।
(ब) वृत्ति, पत्र २७४, २७५ ।
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