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________________ सूयगडो १ ૭૬ दी है। वैकल्पिक रूप में चर्या से पांचों समितिओं तथा आसन-शयन से तीनों गुप्तियों का ग्रहण किया है।" श्लोक ८७ : १५८. मान, क्रोध, माया ( उक्कसं जलणं णूमं) जिसके द्वारा आत्मा दर्प से भर जाती है, उसको उत्कर्ष कहा जाता है। यह मान का वाचक है । जो आत्मगुणों को या चारित्र को जलाता है वह है ज्वलन अर्थात् क्रोध । 'म' यह देशी शब्द है । इसका अर्थ है-गहन । यह माया का वाचक है । माया गहन होती है। उसका मध्य उपलब्ध नहीं होता १५. लोभ (अज्झत्थं ) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-अभिप्रेत । लोभ सबके द्वारा अभिप्रेत है, इसलिए यह शब्द लोभ का वाचक है।' प्रस्तुत श्लोक में शिष्य ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि आगमों में कषायों का एक क्रम है। उसमें क्रोध पहला कषाय है । प्रस्तुत श्लोक में मान को पहला स्थान प्राप्त है। यह आगम प्रसिद्ध क्रम का उल्लंघन है। क्यों ? इसका समाधान यह है कि मान में क्रोध की नियमा है और क्रोध में मान की भजना है। इसको उपदर्शित करने के लिए ही इसमें व्यतिक्रम किया है।' १६०. पांच संवरों से संवृत भिक्षु (पंचसंवरसंबुठे ) पांच संवर ये हैं१. प्राणातिपात विरमण ७. मृषावाद विरमण ३. अदत्तादान विरमण ४. मैथुन विरमण ५. परिग्रह विरमण । अध्ययन १ टिप्पण १५८-१६१ श्लोक : १६१. बंधे हुए लोगों के बीच में (सितह ) बंधन अनेक प्रकार के होते हैं । गृहवास, पुत्र, कलत्र आदि के प्रति जो आसक्ति है, वह भी बंधन है।' इसी प्रकार अपनी मान्यता, मतवाद भी एक बंधन है। भिक्षु सभी प्रकार की आसक्तियों और पूर्वाग्रहों से बचे । : .. १. भूमि, पृ० ४८, ४ चरियति इरियासमिती महिला अधवा परियागहण समितीओ गहिताओ, आसण- सम्यगण कायगुती, एक्कम हवं ति काऊन मगवद्गुलीओ वि महिताओ मत-पाचगहण एसणासमिई एवं आबाच परिद्वावनिवाई सूइयाओ । २. वहीं, पृ० ४९ : उक्कस्यतेऽनेनेति उक्कसो मानः । ज्वलत्यनेनेति ज्वलनः क्रोधः । नूमं णामं अप्रकाशं माया । ३. वही, पृ० ४६ : अज्झत्थो णाम अभिप्रेतः, स च लोभः । ४. वृत्ति, पत्र ५३ : ननु चान्यत्रागमे क्रोध आदावुपन्यस्यते, तथा क्षपकश्रेण्यामारुढो भगवान् क्रोधादीनेव संज्वलनान् क्षपयति, तत् किमर्थमागमप्रसिद्धं क्रममुल्लङ] प्यादी मागस्योपन्यास इति है अत्रोच्यते माने सत्यवश्यंभावी कोधः कोधे तु मान स्याद्वा न वेत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायान्यथाक्रमकरणमिति । " Jain Education International ५. पूर्णि, पृ० ४९ सिता बडा इत्यर्थ हि पापण्डादिभिकलन-विषादिभिः सये सिताः । : - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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