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________________ ७५ सूयगडो १ है-अनभिमत उनके अनुसार सन्नता व इस पद का अर्थ होगा-सभी प्राणियों को दुःख अनभिमत है, अत्रिय है।' १५३. श्लोक ८४ : 1 अनन्तवाद और अपरिमाणवाद के आधार पर हिंसा का समर्थन करने वाले दृष्टिकोण का प्रतिवाद प्रस्तुत श्लोक में मिलता है । आत्मा नहीं मरती और वह सर्व व्यापक है- ये दोनों हिंसा के समर्थन सूत्र नहीं बन सकते । हिंसा और अहिंसा का विचार आत्मा की अमरता या शाश्वतता के आधार पर नहीं किया गया है किन्तु वह उसके परिवर्तनशील पर्यायों के आधार पर किया गया है। वर्तमान पर्याय की वास्तविकता यह है कि सब प्राणी मृत्यु को दुःख मानते हैं और दुःख किसी को भी प्रिय नहीं है, इसलिए सब प्राणी अहिंस्य हैं। कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता, यह अहिंसा का एक आधार बनता है । श्लोक ८५ : १५४. श्लोक : ८५ : ज्ञान का सार क्या है ? यह प्रश्न चिर अतीत आचारांग निर्युक्ति में उल्लेख मिलता है - अंग (ज्ञान) विकसित होती है । जैसे मुझे दुःख अप्रिय है वैसे ही सब है उतनी ही अहिंसा विकसित होती है। सूत्रकार ने इस जानना क्या शेष बचता है ? १५५. संयमी धर्म में स्थित रहे ( बुसिते) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-धर्म में स्थित किया है।' किया है । चक्रवाल की विशद जानकारी के लिए देखें - उत्तराध्ययन का २६ वा अध्ययन । १५६. किसी भी इन्द्रिय विषय में आसक्त न बने ( विगय गिद्धि ) अध्ययन १ टिप्पण १५३-१५७ : से पूछा जाता रहा है। सूत्रकार ने ज्ञान का सार अहिंसा बतलाया है । का सार आचार है।" अहिंसा परम आचार है। यह समता के आधार पर जीवों को दुःख अप्रिय है - इस समता का अनुभव जितना विकसित होता समता पर बल देते हुए लिखा है- ज्ञान का विषय यही है । इससे आगे श्लोक ८६ : वृत्तिकार ने इसका अर्थ - दश प्रकार की चक्रवाल समाचारी में स्थित चूर्णिकार ने 'गिद्धी' के स्थान पर पाठान्तर 'गेही' पाठ माना है और उसका संस्कृत रूप 'ग्रेधि' किया है ।" पिशेल ने गृद्धी से गेही का विकास क्रम इस प्रकार माना है-गृद्धी – गिद्धी - गेद्धि — गेहि । " १५७. आत्मा का संरक्षण करे (आयाणं सारक्खए ) 'आयाणं' के संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-आत्मानं और आदानम् । आत्मा की असंयम से रक्षा करना आत्म-संरक्षण है । ज्ञान आदि का संरक्षण आदान है ।" चरिया......... चूर्णिकार ने चर्या से ईर्यासमिति, आसन और शयन से आदान-निक्षेप समिति और भक्त पान से एषणा समिति की सूचना "अकात अनभिमतम् । १. वृत्ति, पत्र ५२ : आक्रान्ता-अभिभूता २. (क) आचासंगनिति, याचा १६ अंगा हि सारो ? आधारो...। (ख) आवश्यक्ता १३ सामाइयमाई सुवाणं जाव विदुसराओ । तस्स वि सारो चरणं, सारो चरणस्स निव्वाणं ॥ कस्मिन् ? धर्म । Jain Education International २. वृषि, पृ० ४ सिते ति स्थितः ४. वृत्ति, पत्र ५३ : विविधम्- अनेकप्रकारमुषितः स्थितो दशविधचक्रवालसमाचार्यां व्युषितः । ५. चूर्ण, पृ० ४८ : पठ्यते (च) अकषायी सदाऽधिगतगेधी प्रधिः लोभः । ६. पिशेल, प्राकृत व्याकरण, पृ० १२८ । ७. चूणि, पृ० ४८ आयाणं सारक्लए ति आत्मनं सारक्वति अजमाती, आदीयत इति आदानं ज्ञानादि तं सारक्यति मोखहेतुं । t For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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