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टिप्पण: अध्ययन २
श्लोक १:
१. श्लोक १:
जागना दुर्लभ है-यही प्रस्तुत श्लोक का हार्द है। जो वर्तमान क्षण में जागृत नहीं होता, समय की प्रतीक्षा में रहता है, वह जाग नहीं पाता। कोई भी व्यक्ति युवा होकर पुनः शिशु नहीं होता और वृद्ध होकर पुनः युवा नहीं होता। शैशव और यौवन की जो रात्रियां बीत जाती हैं वे फिर लौटकर नहीं आतीं। जीवन को बढ़ाया नहीं जा सकता, इसलिए जागति के लिए वर्तमान क्षण ही सबसे उपयुक्त है । जो मनुष्य भविष्य में जागृत होने की बात सोचते हैं वे अपने आपको आत्म-प्रवंचना में डाल देते हैं।
श्लोक २: २. श्लोक २:
आचारांग सूत्र में बताया गया है कि मृत्यु के लिए कोई अनागम नहीं है-वह किसी भी अवस्था में आ सकती है। प्रस्तुत श्लोक का हृदय यह है कि जो वर्तमान अवस्था में जागृत नहीं होता वह भावी अवस्था में जागने की आशा कैसे कर सकता है? मृत्यु के लिए कोई अवस्था निश्चित नहीं है, इस स्थिति में वर्तमान क्षण ही जागति का क्षण हो सकता है। ३. बटेर (वट्टयं)
बटेर तीतर की जाति का एक पक्षी है जो तीतर से कुछ बड़ा होता है।'
श्लोक ३: ४. श्लोक ३:
कुछ मनुष्य माता-पिता आदि स्वजन वर्ग के स्नेह से बंधकर जागृत नहीं होते। वे सोचते हैं कि माता-पिता आदि की मृत्यु हो जाने पर हम जागृत बनेंगे। किन्तु यह कौन जानता है कि माता-पिता की मृत्यु पहले होगी या सन्तान की? इस अनिश्चित अवस्था में जागृति के प्रश्न को भविष्य के लिए नहीं छोड़ा जा सकता।
जागृति का अर्थ है-अहिंसा और अपरिग्रह की चेतना का निर्माण । जो हिंसा और परिग्रह की चेतना निर्मित करता है, वह सदा सुप्त रहता है।
परिग्रह हिंसापूर्वक होता है। अहिंसक के परिग्रह नहीं होता। परिग्रह के लिए हिंसा होती है, इसलिए हिंसा और परिग्रह-ये दोनों साथ-साथ चलते हैं। जो परिग्रह का निर्देश हो वहां हिंसा का और जहां हिंसा का निर्देश हो वहां परिग्रह का निर्देश स्वयं गम्य है।' ५. सुगति (सुकुल में जन्म) (सुगई)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ सुकुल किया है। वृत्तिकार इसका अर्थ सुगति (अच्छी गति) करते हैं।' १. आयारो ४११६ : नाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि । २. (क) चूणि, पृ० ५२ : बट्टगा नाम तित्तिरजातिरेव ईषदधिकप्रमाणा उक्ता वार्तकाः ।
(ख) वृत्ति, पत्र ५६ : वर्तकं तित्तिरजातीयम् । ३. चूणि, पृ० ५२ : आरम्भो नाम असंयमः अनुक्तमपि ज्ञायते परिग्रहाच्च । कथम् ? आरम्भपूर्वको परिग्रहः स च निरारम्भस्य न __भवतीत्यत आरम्भग्रहणम् । ४. वही, पृ० ५२ : सुगतिर्नाम सुकुलम् । ५. वृत्ति पत्र ५६ ॥
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