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सूयगडो १
अध्ययन १: टिप्पण ५०-५१ वृत्तिकार ने 'उभयतः' का मुख्य अर्थ दो प्रकार का विनाश माना है--निर्हेतुक विनाश और सहेतुक विनाश । वैकल्पिक रूप में इसका अर्थ द्विरूप अर्थात् चेतन या अचेतन जगत्-ये दोनों नष्ट नहीं होते- भी किया है।' ५० सभी पदार्थ सर्वथा नियतिभाव को प्राप्त हैं। (सब्वेवि सव्यहा भावा णियती भावमागया)
इन दो चरणों की व्याख्या में चूणिकार और वृत्तिकार एक मत नहीं हैं।
चूर्णिकार ने इन दो चरणों का अर्थ सांख्यदर्शन के आधार पर किया है। वे 'नियति' का अर्थ प्रधान (प्रकृति) करते हैं । उनके अनुसार इनका अर्थ होगा-महत् आदि सभी विकार प्रकृति के ही अधीन हैं।'
वृत्तिकार के अनुसार इनका अर्थ है-पृथ्वी आदि पांच महाभूत तथा आत्मा-ये सभी पदार्थ नित्य हैं, शाश्वत हैं। वृत्तिकार ने नियतिभाव का अर्थ नित्यत्व किया है।' ५१. श्लोक १५-१६
पंचमहाभूतवाद पकूधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की एक शाखा है। पकुधकात्यायन नित्यपदार्थवादी था। इसका विस्तृत वर्णन प्रस्तुत सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध (११२३-२६) में मिलता है। पंचमहाभूतवादी मानते हैं-......... इस जगत् में पांच महाभूत हैं। हमारे मत के अनुसार जिनसे त्रिया-अत्रिया, सृकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, साधु-असाधु, सिद्धि-असिद्धि, नरक-स्वर्ग, तथा अन्तत: तृण मात्र कार्य भी निष्पन्न होता है.''उस भूत समवाय को पृथक्-पृथक् नामों से जानना चाहिए, जैसे-पृथ्वी पहला महाभूत है, पानी दूसरा महाभूत है, अग्नि तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पांचवा महाभूत है। ये पांच महाभूत अनिमित, अनिर्मापित, अकृत, अकृत्रिम, अकृत, अकृतक, अनादि, अनिधन (अनन्त), अवन्ध्य (सफल), अपुरोहित (दूसरे द्वारा अप्रवर्तित), स्वतंत्र और शाश्वत हैं।"
बौद्ध साहित्य में पकुधकात्यायन द्वारा सम्मत सात कायों का उल्लेख मिलता है। ये सात काय (पदार्थ) अकृत, अकृतविध, अनिर्मित, अनिर्मापित, वन्ध्य, कूटस्थ तथा खंभे के समान अचल हैं । वे हिलते नहीं, बदलते नहीं, आपस में कष्टदायक नहीं होते और एक-दूसरे को सुख-दुःख देने में असमर्थ हैं। पृथ्वी, आप, तेज, वायु, सुख, दुःख तथा जीव--ये ही सात पदार्थ हैं। इनमें मारने वाला, मरने वाला, सुनने वाला, कहने वाला, जानने वाला, जनाने वाला, कोई नहीं। जो भी तीक्ष्ण शस्त्र से सिर का छेदन करता है, वह किसी जीव का व्यपरोपण नहीं करता । वह शस्त्र इन सात पदार्थों के अवकाश (रिक्त स्थान) में घुसता है। १. वृत्ति, पत्र २४, २५ : उभयत इति निर्हेतुकविनाशद्वयेन न विनश्यन्ति .....यदि वा-दुहओ त्ति द्विरूपादात्मनः स्वभावाच्चेतना
चेतनरूपान विनश्यन्तीति । २.णि, पृष्ठ २८: सव्वे महतादयो विकाराः । नियति म प्रधानम् तामागताः। ३. वृत्ति, पत्र २५ : सर्वेऽपि भावा:-पृथिव्यादय आत्मषष्ठाः नियतिभावं नित्यत्वमागता। ४. सूपगडो २२१०२५, २६ । तेसि च णं एगइए सट्टी भवति । कामं तं समणा वा माहणा वा संपहारिसु गमणाए । तत्थ अण्णतरेणं धम्मेणं पण्णत्तारो, वयं इमेणं धम्मेणं पण्णवइसामो। से एवमायाणह भयंतारो! जहा मे एस धम्मे सुयक्खाते सुपण्णत्ते भवति-इह खलु पंचमहन्भूया जेहिं णो कज्जइ किरिया इ वा अकिरिया इ वा सुकडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्याणे इ वा पावए इवा साहू इवा असाहू इ वा सिद्धी इ वा असिद्धी इ वा णिरए इ वा अणिरए इवा, अवि अंतसो तणमायमवि ।
तंच पदोद्देसेणं पुढोभूतसमवायं जाणेज्जा, तं जहा-पुढवी एगे महन्भूते, आऊ दुच्चे महन्भूते, तेऊ तच्चे महम्मते, वाऊ चउत्थे महब्भूते, आगासे पंचमे महत्भूते । इच्चेते पंच महन्भूया अणिम्मिया अणिम्माविया अकडा णो कित्तिमा णो कडगा अणादिया अणिधणा अवंझा अपुरोहिता सतंता सासया। ५. दीघनिकाय २२।४।२५ : एवं वुत्ते, भन्ते, पकुधो कच्चायनो में एतदवोच–'सत्तिमे, महाराज, काया अकटा अकट विधा अनिम्मिता;
अनिम्माता वञ्झा कूटट्ठा एसिकट्ठायिद्विता । ते न इजन्ति, न विपरिणामेन्ति, न अञमधे व्याबाधेन्ति, नालं असमञ्जस्स: सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा । कतमे सत्त ? पउविकायो, आपोकायो, तेजोकायो, वायोकायो, सुखे, दुक्खे, जोवे सत्त मेइमे सत्त काया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता बझा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता। ते न इञ्जन्ति, न विपरिणामेन्ति, ना अञ्जमजं व्याबाधेन्ति, नालं असमञ्जस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा। तत्य नत्थि हन्ता वा घातेता वा सोता वा सावेता वा विमाता वा विज्ञापेता वा । यो पि तिण्हेन सत्थेन सीसं छिन्दति, न कोचि किञ्चि जीविता वोरोपेति, सत्तन्नं त्वेक कायानमन्तरेन सत्थं विवरमनुपतती' ति ।
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