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सूयगडो १
अध्ययन १४ : टिप्पण १०१-१०६ १०१. शास्ता की भक्ति (सत्थारभत्ती)
शास्ता का अर्थ है तीर्थंकर, सर्वज्ञ । भक्ति का अर्थ है-बहुमान ।
शास्ता स्वहित साध चुके होते हैं, अत: वे सदा परहित में रत रहते हैं । आगम-श्रुत उन्हीं के द्वारा प्रणीत है। इसलिए मुनि उनके प्रति अपनी भक्ति से प्रेरित होकर सूत्रार्थ को अन्यथा न करे। १०२. परम्परा के अनुसार (अणुवीचि)
इसका संस्कृत रूप है 'अनुवीचि' । यह क्रिया विशेषण है । इसका अर्थ है-परंपरा के अनुसार ।
चूर्णिकार और वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप-अनुविचिन्त्य किया है।' १०३. श्रुत का सम्यक् प्रतिपादन करे (सुयं च सम्म पडिवादएज्जा)
मुनि संघ में रहता है, वहां अध्ययन करता है, संघ से सहयोग प्राप्त करता है । इस प्रकार वह संघ का ऋणी हो जाता है। उस ऋण से मुक्त होने के लिए संघ को सेवा देना ऋण-परिमोक्ष होता है। श्रुत के प्रतिपादन का एक उद्देश्य है - ऋण-परिमोक्ष ।'
श्लोक २७:
१०४. जो सूत्र का शुद्ध उच्चारण करता है (सुद्धसुत्ते)
चूर्णिकार के अनुसार श्रुत जिसके लिए अत्यन्त परिचित हो चुका है और जिसका उच्चारण व्यत्यानेडित आदि दोषों से रहित है, वह शुद्ध सूत्र है।'
वृत्तिकार के अनुसार जिसका प्रवचन अध्ययन और प्ररूपणा की दृष्टि से यथार्थ होता है वह शुद्ध-सूत्र कहलाता है। १०५. तपस्वी है (उवहाणवं)
आगमों में जिस-जिस आगम के लिए जो-जो तपश्चरण विहित है, उसको करने वाला उपधानवान् कहलाता है।' १०६. धर्म को विविध दृष्टिकोणों से प्राप्त करता है (धम्मं च जे विदंति तत्थ तत्थ)
इसका अर्थ है-जो धर्म को विभिन्न दृष्टिकोणों से प्राप्त करता है। 'विदंति' के दो अर्थ हैं-जानना, सम्यक् रूप से प्राप्त करना । इस वाक्य का तात्पर्याथं यह है
मुनि आज्ञाग्राह्य अर्थ को केवल आगम से ही जाने और हेतुग्राह्य अर्थ को सम्यक् हेतुओं से समझे। अथवा अपने सिद्धान्त के अनुसार सिद्ध अर्थ को अपने सिद्धान्त में व्यवस्थापित करे और पर-सिद्धान्त के अनुसार सिद्ध अर्थ को पर-सिद्धान्त में व्यवस्थापित करे । अथवा उत्सर्ग सूत्र से व्यवस्थित अर्थ को उत्सर्ग सूत्र से समझे और अपवाद को अपवाद सूत्र से समझे । मुनि सूत्र को विभिन्न १. (क) चूणि, पृ० २३६ : शासतीति शास्ता, शास्तरि भक्तिःसस्थारभक्तिः, स भवति सत्थारभक्तिः ।
(ख) वृत्ति, पत्र २५८ : परहितकरतः शास्ता तस्मिन् शास्तरि या व्यवस्थिता भक्ति:-बहुमानस्तया तद्भक्त्या....." २. (क) चूणि, पृ० २३६ : ... 'अणुविचिणंतु अणुविचितेऊण ... अनुविचिन्त्य ।
(ख) वृत्ति, पत्र २५८ : ..... अनुविचिन्त्य । ३. (क) चूणि, पृ० २३६ : तच्च श्रुत्वा सम्यग् अन्येभ्यः रिणपरिमोक्खी पडिवावएज्जा तदिदं पडिवादयेत् पडिवावेज्जा सूत्रमर्थ धर्म
कथां वा। (ख) वृत्ति, पत्र २५८ : तथा यत् श्रुतमाचार्यादिभ्यः सकाशातत्तशैव सम्यक्त्वाराधनामनुवर्तमानोऽन्येभ्य ऋणमोक्ष प्रतिपद्यमानः
'प्रतिपादयेत्'-प्ररूपयेन सुखशीलतां मन्यमानो यथाकथंचित्तिष्ठेविति । ४. चूर्णि, पृ० २३७ : सुद्धं परिचितं अविच्चामेलितं च । ५. वृत्ति, पत्र २५८ : शुद्धम् - अवदातं यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतोऽध्ययनतश्च सूत्रं-प्रवचनं यस्यासौ शुद्धसूत्रः । ६. (क) चूणि, पृ० २३७ : उपधानवानिति तपोपधानवान् ।
(ख) वृत्ति, पत्र २५८ : उपधानं–तपश्चरणं यद्यस्य सूत्रस्याभिहितमागमे तद्विद्यते यस्यासावुपधानवान् ।
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