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सूयगडो १
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अध्ययन १: टिप्पण ४५ तम के दो अर्थ हैं-मिथ्यादर्शन या अज्ञान ।' चूर्णिकार के अनुसार इस पद का अर्थ है-वे प्राणी अज्ञान से अज्ञान की ओर ही जाते है।
वृत्तिकार ने इस पद के दो अर्थ किए हैं१. वे प्राणी अज्ञान से घोर अज्ञान में जाते हैं।
२. एक यातनास्थान (नरक) से दूसरे महत्तर यातनास्थान (सातवें नरक) में जाते हैं। ४५. श्लोक १३-१४:
अक्रियावादि पूरणकाश्यप का दार्शनिक पक्ष है। बौद्ध साहित्य में पूरणकाश्यप के विचारों का प्रतिपादन इस प्रकार हुआ
'कर्म करते-कराते, छेदन करते-कराते, पकाते-पकवाते, शोक कराते, परेशान होते, परेशान करते, चलते-चलाते, प्राणों का अतिपात करते, अदत्त लेते, सेंध लगाते, गांध लूटते, चोरी-बदमाशी करते, परस्त्रीगमन करते तथा झूठ बोलते हुए भी पाप नहीं होता । तीक्ष्ण धार के चक्र से काटकर इस पृथ्वी के प्राणियों का कोई मांस का एक खलिहान बना दे, मांस का एक पुंज बना दे, तो भी उसको उसके द्वारा पाप नहीं होगा, पाप का आगम नहीं होगा। यदि घात करते-कराते, छेदन करते-कराते, पकाते-पकवाते, गंगा नदी के दक्षिण तट पर भी चला जाए तो भी इसके कारण उसके पाप नहीं होगा, पाप का आगम नहीं होगा। दान देतेदिलाते, यज्ञ करते-कराते, गंगा के उत्तर तीर पर भी आ जाए तो इसके कारण उसको पुण्य नहीं होगा, पुण्य का आगम नहीं । दान से, दमन से, संयम से और सत्य-वचन से पुण्य नहीं होता, पुण्य का आगम नही होता।"
पकुधकात्यापन और पूरणकाश्यप-ये दोनों ही अक्रियवादी थे। ये दोनों ही पुण्य और पाप को अस्वीकार करते थे।
प्रस्तुत श्लोकों की व्याख्या सांख्यदर्शनपरक भी की जा सकती है । चूर्णिकार ने इसका संकेत भी दिया है ।' सांख्यदर्शन के अनुसार तेरहवें श्लोक का अनुवाद इस प्रकार होगा-'आत्मा कुछ करता है और कुछ करवाता है, किन्तु सब कुछ नहीं करता, इसलिए वह अकर्ता है । अक्रियावादी इस सिद्धान्त की स्थापना करते हैं।'
चूणिकार ने लिखा है-आत्मा सर्वथा, सर्वत्र और सर्वकाल में सब कुछ नहीं करता, इसलिए वह अकर्ता है।'
वृत्तिकार ने लिखा है-(अकारवाद सांख्य दर्शन) के अनुसार आत्मा अमूर्त, नित्य और सर्वव्यापी है, इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकता। यद्यपि उसमें स्थितिक्रिया तथा मुद्रा-प्रतिबिम्ब न्याय से भुजिक्रिया होती है, फिर भी वह सब क्रियाओं का कर्ता नहीं है, इसलिए वह अकर्ता है।
सांख्यकारिका में पुरुष (आत्मा) के पांच धर्म बतलाए गए हैं-साक्षित्व, कैवल्य, माध्यस्थ्य, द्रष्टत्व और अकर्तृत्व । पुरुष के अकर्तृत्वभाव की सिद्धि में दो हेतु हैं-'पुरुष विवेकी है तथा उसमें प्रसव धर्म का सर्वथा अभाव है। अविवेकिता से ही सम्भूयकारिता के रूप में कर्तृत्व आता है तथा जो प्रसवधर्मी अर्थात् अन्य तत्त्वों को उत्पन्न करने की क्षमता रखता है, वही कर्ता हो १. चूणि, पृष्ठ २८ : तम इति मिथ्यादर्शनं अज्ञानं वा। २. वृत्ति, पत्र २३ : अज्ञानरूपात्तमसः सकाशादन्यत्तमो यान्ति, भूयोऽपि ज्ञानावरणादिरूपं महत्तरं तमः संचिन्वन्तीयुक्तं भवति, यदिवा
-तम इव तमो-देःखसमुद्घातेन सदसद्विवेकप्रध्वंसित्वाद्यातनास्थानं तस्माद्-एवंभूतात्तमसः परतरं तमो यान्ति, सप्तमनरकपृथिव्यां रौरवमहारौरवकालमहाकालाप्रतिष्ठानाख्यं नरकावासं यान्तीत्यर्थः । ३. दीघनिकाय १।२।४।१७ ॥ ४. चूणि, पृष्ठ २७ : एगे णाम सांख्यादयः । ५. वही, पृष्ठ २७ : सव्वं कुव्वं ण विज्जति त्ति, सर्व सर्वथा सर्वत्र सर्वकाल चेति । ६. वृत्ति, पत्र २१,२२ : अकारकवादिमताभिधित्सया आह......." आत्मनश्चामूर्तत्वान्नित्यत्वात् सर्वव्यापित्वाच्च कर्तृत्वानुपपत्तिः,
अत एव हेतोः कारयितृत्वमप्यात्मनोऽनुपपन्नमिति । . . . . . . . . 'यद्यपि च स्थितिक्रियां मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन (जपास्फटिकन्यायेन
च) भुजिक्रियां करोति तथापि समस्तक्रियाकर्तृत्वं तस्य नास्ति । ७. सांख्यकारिका १६ : तस्माच्च विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य ।
कैवल्यं माध्यस्थ्यं द्रष्टुत्वमकत भावश्च ॥
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