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सूयगडो १
अध्ययन १ : टिप्पण ४२-४४ ५. जैसे स्वप्न में विज्ञान बहिर्मुख आकार के रूप में अनुभूत होता है, आन्तरिक घटना बाह्य अर्थ के रूप में प्रतीत होती है, ___ इसी प्रकार आत्मा के न होने पर भी भूत समुदाय में विज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। ५. जब स्वच्छ कांच में बाहर के पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है तब ऐसा लगता है कि वह पदार्थ कांच के अन्दर स्थित है,
किन्तु वह वैसा नहीं है। ६. जैसे गर्मी में भूमी की उष्म' से उत्पन्न किरणें दूर से देखने पर जल का भ्रम उत्पन्न करती हैं, ७. जैसे गन्धर्वनगर आदि यथार्थ न होने पर भी यथार्थ का भ्रम उत्पन्न करते हैं
उसी प्रकार काया के आकार में परिणत भूतों का समुदाय भी आत्मा का भ्रम उत्पन्न करता है । यथार्थ में वह उससे पृथग् नहीं है।
वृत्तिकार ने अंत में लिखा है-'इन दृष्टांतों के प्रतिपादक कुछ सूत्र कहे जाते हैं किन्तु मुझे प्राचीन सूत्र-प्रतियों तथा प्राचीन टीकाओं में वे प्राप्त नहीं हुए इसीलिए मैंने उनका उल्लेख नहीं किया है।'
श्लोक १४:
४२. यह लोक (लोए)
चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-सम्यक्त्वलोक, ज्ञानलोक या संयमलोक, अथवा इहलोक या परलोक या दूसरा कोई
लोक ।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ-चतुर्गत्यात्मक संसार किया है। लोक शब्द का अर्थ-दर्शन, दृष्टि या आलोक भी किया जा सकता
४३. हिंसा से प्रतिबद्ध (आरंभणिस्सिया)
आरंभ के दो प्रकार हैं१. द्रव्य आरंभ-छह जीवनिकायों का वध आदि । २. भाव आरंभ-हिंसा आदि में परिणत अशुभ संकल्प ।'
वृत्तिकार ने हिंसाजन्य व्यापार से संबद्ध व्यक्ति को 'आरंभनिश्रित' माना है।" ४४. तमसे घोर तम की ओर चले जाते हैं-(तमाओ ते तमं जंति)
तम के दो प्रकार हैं१. द्रव्य तम-नरक, तमस्काय, कृष्णराजि । ये तीनों अंधकारमय हैं । २. भाव तम-मिथ्यादर्शन, एकेन्द्रिय अवस्था।'
मिथ्यादर्शन में दृष्टि अंधकारपूर्ण होती है और एकेन्द्रिय जीव स्त्यानद्धि निद्रा (गहन सुषुप्ति) में होते हैं इसलिए ये तमस् की अवस्था में रहते हैं। १. वृत्ति, पत्र २१ : अस्मिश्चार्थे बहवो दृष्टान्ताः सन्ति, तद्यथा--........... ....भ्रान्ति समुत्पादयतीति । अमीषां च
दृष्टान्तानां प्रतिपादकानि केचित्सूत्राणि व्याचक्षते, अस्माभिस्तु सूत्रादर्शषु चिरन्तनटीकायां चादृष्टवान्नोल्लिखितानीति । २. चूणि, पृष्ठ २८ : लोकत्वात् सम्यक्त्वलोको ज्ञानलोकः संयमलोको वा, अथवा योऽभिप्रेतो लोकः परोऽन्यो वा । ३. वृत्ति, पत्र २३ : लोकः चतुर्गतिकसंसारः । ४. चूणि, पृष्ठ २८ : आरम्भे द्रव्ये भावे च । द्रव्ये षट्कायवधः, भावे हिंसादिपरिणता असुभसंकप्पा । ५. वृत्ति, पत्र २३ :प्राण्युपमर्दकारिणि विवेकिजननिन्दिते आरम्भे-व्यापारे निश्चयेन नितरां वा श्रिताः-संबद्धाः, पुण्यपापयोरभाव
इत्याश्रित्य परलोकनिरपेक्षतयारम्भनिश्रिता इति । ६. चणि, पृष्ठ २८: तमो हि द्वेधा-ध्ये भावे च । द्रव्ये नरकः तमस्कायः कृष्णराजयश्च, भावे मिथ्यावर्शनं एकेन्द्रिया वा।
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