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सूयगडो १
अध्ययन १:टिप्पण ४०-४१ __ जैसे कोई पुरुष दही से नवनीत निकाल कर दिखलाए-आयुष्मान् ! यह नवनीत है, यह दही । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है।
जैसे कोई पुरुष तिलों से तेल निकाल कर दिखलाए- आयुष्मान् ! यह तेल है, यह खली । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है।
जैसे कोई पुरुष ईख से रस निकाल कर दिल!ए- आयुष्मान् ! यह ईख का रस है, यह छाल । पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है।
जैसे कोई पुरुष अरणी से आग निकाल कर दिखलाए-आयुष्मान ! यह अरणी है, यह आग। पर ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो आत्मा को शरीर से निकाल कर दिखलाए, आयुष्मान् ! यह आत्मा है, यह शरीर है।
इस प्रकार शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व नहीं है, शरीर से भिन्न उसका संवेदन नहीं है।'
जैन साहित्य में तज्जीव-तच्छरीरवाद का उल्लेख है किन्तु उसके पुरस्कर्ता तीर्थकर का उल्लेख नहीं है । बौद्ध साहित्य में उसके तीर्थकर का भी उल्लेख प्राप्त है।
बौद्ध साहित्य में उपलब्ध अजितकेशकंबल के दार्शनिक विचारों की उक्त विचारों तथा प्रस्तुत श्लोक-युगल से तुलना करने पर सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि इस श्लोक-युगल में अजितकेशकंबल के दार्शनिक विचार प्रतिपादित हुए हैं । दीघनिकाय के अनुसार अजितकेशकंबल के दार्शनिक विचार इस प्रकार हैं
.......दान नहीं है, यज्ञ नहीं है, आहुति नहीं है । सुकृत और दुष्कृत कर्मों का फल-विपाक नहीं है । न यह लोक है और न परलोक । न माता है और न पिता। औपपातिक सत्त्व (देव) भी नहीं हैं। लोक में सत्य तक पहुंचे हुए तथा सम्यक् प्रतिपन्न श्रमणब्राह्मण नहीं हैं जो इस लोक और परलोक को स्वयं जानकर, साक्षात् कर बतला सकें। प्राणी चार महाभूतों से बना है । जब वह मरता है तब (शरीरगत) पृथ्वी तत्त्व पृथ्वीकाय में, पानी तत्त्व अप्काय में, अग्नि तत्त्व तेजस् काय में और वायु तत्त्व वायुकाय में मिल जाते हैं । इन्द्रियाँ आकाश में चली जाती हैं। चार पुरुष मृत व्यक्ति को खाट पर ले जाते हैं । जलाने तक उसके चिन्ह जान पड़ते हैं । फिर हड्डियां कपोत वर्ण वाली हो जाती हैं। आहुतियां राख मात्र रह जाती हैं । 'दान करो' यह मूों का उपदेश है । जो आस्तिकवाद का कथन करते हैं, वह उनका कहना तुच्छ और झूठा विलाप है । मूर्ख हो या पंडित, शरीर का नाश होने पर सब विनष्ट हो जाते हैं। मरने के बाद कुछ नहीं रहता।' ४१. श्लोक १२:
भूतों से व्यतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है, भूतों के विघटित होने पर आत्मा का अभाव हो जाता है-इस पक्ष को पुष्ट करने वाले दृष्टांतों का उल्लेख वृत्तिकार ने किया है । वे इस प्रकार हैं
१. जल के बिना जल का बुबुद् नहीं होता, इसी प्रकार भूतों के व्यतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है। २. जैसे केले के तने की छाल को निकालने लगें तो उस छाल के अतिरिक्त अन्त तक कुछ भी सार पदार्थ हस्तगत नहीं होता,
इसी प्रकार भूतों के विघटित होने पर भूतों के अतिरिक्त और कुछ भी सारभूत तत्त्व प्राप्त नहीं होता। ३. जब कोई व्यक्ति अलात को घुमाता है तो दूसरों को लगता है कि कोई चक्र घूम रहा है, उसी प्रकार भूतो का समुदाय
भी विशिष्ट क्रिया के द्वारा जीव की भ्रान्ति उत्पन्न करता है। १. सूयगडो २११२१५-१७ । २. दीघनिकाय ११२।४।२२ : एवं वुत्ते, भंते, अजितो केसकंबलो मं एतदवोच -नत्थि, महाराज, दिन्नं, नत्थि यिठें, नत्थ हुतं, नत्थि
सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नथि अयं लोको, नत्यि परो लोको, नत्यि माता, नत्थि पिता, नथि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना ये इमं च लोकं परं च लोकं सयं अभिआ सच्छिकत्वा पवेदेन्ति । चातुमहाभूतिको अयं पुरिसो यदा कालं करोति, पठवी पठविकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आपो आपोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, तेजो तेजोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, वायो वायोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आकासं इन्द्रियानि सङ्कनन्ति । आसन्दिपञ्चमा पुरिसा मतं आदाय गच्छन्ति । यावाब्वाहना पदानि पञ्चायन्ति । कापोतकानि अट्ठीनि भवंति । भस्सन्ता आहुतियो । दत्तुपञ्जत्तं यदिदं दानं । तेसं तुच्छ मुसा विलापो ये केचि अथिकवादं वदन्ति । बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति, न होन्ति परं मरणा'ति ।
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