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सूयगडो १
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प्रध्ययन १०: टिप्पण ६२-६५
श्लोक १८: ६२. आयु के क्षय को (आउक्खयं)
हिंसा आदि में प्रवृत्त मनुष्य अपने आयुष्य के क्षय को नहीं जानता क्योकि उन प्रवृत्तियों के प्रति उसका ममत्व होता है।
एक तालाब है। उसमें बहुत सारी मछलियां हैं। तालाब की पाल टूट जाती है। पानी बाहर बहने लगता है। धीरे-धीरे तालाब खाली होता जाता है । जल की क्षीणता के साथ-साथ आयुष्य भी क्षीण हो रहा है-यह बात मछलियां नहीं जानती।
एक बनिया था। उसने बहुत परिश्रम कर मूल्यवान् रत्न प्राप्त किए। वह उन रत्नों को लेकर चला । रात गई। वह उज्जैनी नगरी के बाहर आकर रुका और रात भर यह सोचता रहा कि रत्नों को सुरक्षित कैसे ले जाया जाए । कहीं राजा, चौर या भाई-बन्धु इन्हें न ले लें-इसी चिन्ता में सारी रात बीत गई । किन्तु रात्री के बीतने को वह नहीं जान सका। सूर्योदय हो गया। उसे राजपुरुषों ने देखा । उसके सारे रत्न ले लिए । रत्नों को दे वह खाली हाथ घर लौटा ।' ६३. ममत्वशील (ममाई)
यह मेरी माता है, यह मेरा पिता है, भाई है 'यह मेरा है, मैं इसका हूँ'-इस प्रकार ममत्व करने वाला 'ममायी' होता है। ६४. सहसा (बिना सोचे समझे) काम करने वाला (साहसकारि) - इसका अर्थ है-बिना सोचे-समझे आवेश में कार्य करने वाला । वर्तमान में इस शब्द के अर्थ का उत्कर्ष हुआ है। आज इसका अर्थ शक्तिशाली-संकल्पवान् समझा जाता है।
चूर्णिकार ने 'सहस्स' पाठ का अर्थ हिंसा आदि किया है। यहां छन्द की दृष्टि से ह्रस्व का प्रयोग है।
देखें-दसवेआलियं ९।३।२२ का टिप्पण। ६५. विषयों से पीड़ित (अट्ट)
जिस व्यक्ति के मन में धन की आकांक्षा बनी रहती है वह सदा सोचता रहता है-यह व्यापारियों का सार्थ (सथवाडा) कब निकलेगा? इसके साथ कौनसा माल है ? यह कितनी दूर जाएगा? वह धन को सुरक्षित रखने के लिए कभी ऊंचे स्थान को खोदता है, कभी भूमि को खोदता है, कभी किसी को मारता है। वह न रात को सो पाता है और न दिन में निःशंक रहता है। धन के चले जाने की शंका उसमें सदा बनी रहती है। १. चूणि, पृ० १९६० : स एवं हिंसाविकम्मसु प(स)जमानः कामभोगतषितः छिन्नह्नदमत्स्यवदुदकपरिक्षये आयुषः क्षयं न
बुध्यते। २. (क) चूणि, पृ० १९० : उज्जेणिए वाणियगो रयणाणि कधं पवेस्सस्सामि ? त्ति रजनिक्षयं न बुध्यते स्म, अतो व्यग्रतया यावदु
दिते सवितरि राज्ञा गृहीतः। (ख) वृत्ति, पृ० १६५ : कश्चिद्वणिग् महता क्लेशेन महा_णि रत्नानि समासाद्योज्जयिन्या बहिरावासितः, स च राजचौरदायाव
भयाद्रात्रौ रत्नान्येवमेवं च प्रवेश यिष्यामीत्येवं पर्यालोचनाकुलो रजनीक्षयं न ज्ञातवान्, अह न्येव रत्नानि
प्रवेशयन् राजपुरुष रत्नेभ्यश्च्यावित इति । ३. (क) चूणि, पृष्ठ १९० : ममाइ ति ममाई, तद्यथा-मे माता मम पिता मम भ्रातेत्यादि ।
(ख) वृत्ति, पत्र १६५ : 'ममाइ' त्ति ममत्ववान् इदं मे अहमस्य स्वामीत्योवम् । ४. चूणि, पृ० १६० : सहस्साई हिंसादीनि । ५. वृत्ति, पत्र १९५: तदेवमार्तध्यानोपहतः 'कइया वच्चइ सत्यो ? कि भंडं कत्थ कित्तिया भूमी' त्यादि, तथा 'उक्खणइ खणइ णिह
णइ रत्ति न सुयइ दियावि य ससंको' इत्यादि चित्तसंक्लेशात सुष्ठ मूढोऽजरामरवणिग्वदजरामरवदात्मानं मन्यमानोऽपगतशुभाध्यवसायोऽहनिशमारम्मे प्रवर्तत इति ।
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